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वर्ल्ड कप के फाइनल में हमारी हार

वर्ल्ड कप के फाइनल में हमारी हार इसलिए हुई क्योंकि हम जीत हासिल करने पहले ही आत्म प्रवंचना की हाइट पर चले गए। एक आत्ममुग्ध और खोखले नजरीआई कौम के रूप में हम पहले से ही ढोल नगारे बजाने लगे। चाहे वह टीम मैनेजमेंट हो या देश मैनेजमेंट बिना अंतिम लक्ष्य हासिल किये जीत का जश्न मनाने की मुद्रा में आकर अपने करैक्टर और नायकत्व को भूल चूका था। खोखले, नपन्सुक, निराधार आक्रामकता और छिछले राष्ट्रवाद से उपलब्धियों का जखीरा नहीं आ सकता। गोया देश का इन्तज़ामिआ स्टेडियम के ऊपर एयर शो करने लगा और टीम मैनेजमेंट पिछले दस मैचों में दर्ज शानदार जीत की खुमारी में अपने अंतिम प्रतिद्वंदी की तमाम चालो और तैयारियों के प्रतिकार का पूर्वानुमान ही नहीं लगा पायी । अपनी जीत की खुमारी में टीम इलेवन में सूर्य कुमार , सिराज , कुलदीप और गिल जैसे खिलाडियों के औसत प्रदर्शन को दरकिनार कर फाइनल इलेवन में भी जगह मुहैया कराई गयी। हॉलैंड के खिलाफ भी चैंपियन खिलाडी अश्विन और धुआंदार बल्लेबाज ईशान को प्रैक्टिस तक नहीं कराया गया। पंडया के बाद मिडिल आर्डर में पावर हीटर भारतीय टीम में नदारत था। स्काई को रखा गया जिसके पास फाइनल में हीरो बनने का बड़ा अवसर मिला था , पर यह साफ़ हो गया की वह वन डे का प्लेयर नहीं है। मुझे पक्का यकीं है यदि इस समय शार्दुल ठाकुर जैसा करेजियस खिलाडी होता तो वह तीस चालीस ताबरतोड़ रन बना डालता। रोहित शर्मा को कम से कम फाइनल में पिंच हीटर बनने से बचना चाहिए था और एक जिम्मेवारी भरी पाली खेलनी थी। एक ओवर में दो छक्के मारने के बाद भी हवाई शॉट के लिए जाना उनकी अपरिपक्वता का परिचायक था। आखिर विराट क्यों महानतम है क्योंकि वह सिचुएशन के आधार पर अपने को एडजस्ट करता है।
टीवी चैनलों पर एंकर खोखले राष्ट्रवाद की कई दिनों से दुंदुभी बजा रहे थे। लगता है हमारे टीम, हमारे कौम और हमारे हुकुमरान का रियल करैक्टर का हमें यह फल मिला। वैसे तो भारतीय टीम में पिछले चार दशक के दौरान बेहतर बनते जाने की एक कथा जरूर बनी जिसमे गांगुली , धोनी और विराट की एक अनमोल लिगेसी बनती आयी है।
एशिया कप के पहले तक यह टीम द्रविड़ और रोहित की देख रेख में एक लुंज पुंज टीम ही दिख रही थी। हम इंग्लैंड के कंडीशन में icc टेस्ट चैंपियन दो दो बार हारे और पिछली चार बार से टेस्ट शृंखला हारे है। पर धन्य हो अजित अगरकर के सिलेक्टर बनने से टीम सिलेक्शन से एक अच्छा कॉम्बिनेशन बना। ओपनिंग , मिडिल आर्डर , फ़ास्ट बोलिंग ठीक हुई। लेकिन लेकिंन लेट पावर हिटिंग और लम्बा टेल आर्डर तथा शमी और बुमराह पर अति निर्भरता हमारे लिए फाइनल में परेशानी का शबब बानी। सबसे बड़ी सीख इस टूर्नामेंट से यही मिली जब तक उपलब्धि झोली में आ नहीं जाए, तबतक जश्न का इजहार मत करो। आखिर इसी देश के महापुरुष चाणक्य क्या कहता था जबतक सफलता हासिल न हो जाए, तबतक किसी तरह की अभिव्यक्ति नहीं होनी चाहिए । पिछली बार चंद्रयान के लैंडिंग होने से पहले हम जिनगोइज़म में मशगूल हुए , वह लैंडिंग फ़ैल हो गयी। इस बार जब हमने सामान्य तरीके से बिना हो हल्ला किये चंद्रयान की लॉन्चिंग की तो उसकी लैंडिंग भी सफल रही।
भारतीय टीम की फाइनल में मिली हार से सबक यही है की विपरीत परिस्थिति में किसी एक को नायक की भूमिका में आना पड़ता है। इमरान खान कहता था की मेरे लिए आला खिलाडी वह है जो एक विपरीत परिस्थिति में उभरना जानता हो। यदि भारत का कोई एक बल्लेबाज बलाईन्डर इनिंग खेल दिया होता तो हमारा स्कोर 280 बन जाता और हम मैच जीत सकते थे। वही ऑस्ट्रेलिया की टीम में ट्राविस हेड एक हीरो के रूप में उभरा। ऑस्ट्रेलिआ की टीम जिन जिन से लीग मैच हारी उनको सेमि फाइनल और फाइनल में हराया। ऐसा नहीं है की हम ऑस्ट्रेलिया को हराते नहीं। हम उनसे लगातार चार बार से टेस्ट सीरीज और ओडीआई सीरीज जित रहे है। पर icc का टेस्ट और oneday फाइनल उनसे हार गए।
इस टूर्नामेंट में शमी का एक वर्ल्ड क्लास बॉलर और श्रेयस का एक वर्ल्ड क्लास बल्लेबाज में उभरना मुझे उपलब्धि दिखाई पड़ती है। बाकी आश्विन को बाहर रखने का पाप धोनी , विराट और रोहित तीनो ने किया है।

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