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एमएसपी का लीगल दर्जा किसान उपभोक्ता सरकार और कारपोरेट सभी के लिए विन विन


मनोहर मनोज
एमएसपी की मांग को लेकर जो किसान संगठन , सरकार और कृषि विशेषज्ञों की तरफ से जो धारणाएं यानी नैरेटिव गढी और परोसी जा रही है उसमें  कई भ्रांतियां  हैं।   एमएसपी के एक नहीं इसके तीन पहलू हैं। पहला ये की  एमएसपी दरें कृषि उत्पादों की लागत के हिसाब से  कितनी पर्याप्त है? 
 एमएसपी का दूसरा पहलू है चावल और गेहूं के अलावा एमएसपी सूची के कुल 36  कृषि उत्पादों की भी उनके निर्धारित एमएसपी पर क्रय सुनिश्चित होती है या नहीं  । और तीसरा पहलू है कि इन सभी कृषि उत्पादों की सरकारी  एजेंसियों के अलावा निजी  कारपोरेट द्वारा भी उसी एमएसपी दरों पर खरीद सुनिश्चित हो जिससे देश के किसी हिस्से में  कृषि उपादो का क्रय बाजार औने पौने दामों पर ना चले  । समूचा लबोलुआब ये  है  कि फसल सीजन में अचानक आपूर्ति बढने की दिशा में खेती के  तमाम   उत्पादों के  बाजार में   दामों को गिरने से बचाया  जा सके और दूसरी तरफ इनकी कीमते एमएसपी से नीचे ना जाएँ भले बाजार दीर्घकालीन मांग के हिसाब से उन्हें एमएसपी दर से ज्यादा मुहैया कराये  ।

 दरअसल एमएसपी के इन तीनों पहलुओं का क्रियान्यवन एमएसपी की प्रणाली को बिना एक काननूी जामा पहनाये   किया ही नहीं जा सकता।  अभी की मौजूदा स्थिति में एमएसपी प्रणाली का जो स्वरूप  है कि उसमे  भारत सरकार की मुखय क्रय एजेंसी एफसीआई केवल चावल और गेहूं की खरीद करती है जि सका भंडारण कर वह  पीडीएस के जरिये आपूरित करती है। दलहन और तिलहन उत्पादों की हर साल एमएसपी घोषित होती है पर इनके  क्रय, भंडारण और आपूर्ति की प्रणाली एफसीआई के पास मौजूद नहीं होने से पूरी खरीद नहीं हो पाती है। और दूसरी  सरकारी संस्था नाफेड कभी कभार तिलहन प्याज टमाटर क्रय कर पाती  है। यानि देश में  मोटे  तौर पर सभी कृषि  उत्पादों की एमएसपी दर घोषित जरूर होती हैं पर  इनका क्रियान्वन नहीं हो पाता और नतीजतन खेती घाटे का पेशा बनने के लिए अभिशप्त होती  है। लेकिन इन सारे मामलो पर  सरकार लगातार यही दोहराती है कि वह एमएसपी दरों पर चावल और गेहू जैसे मुखय अनाज की स्वर्य रिकार्ड मात्रा में खरीद करती है। 
गौरतलब है देश में 80  करोड गरीबों को मुफत अनाज देने की घोषणा के बाद तो सरकार की यह क्रय मात्रा और बढ गयी है और इस बाबत मोदी सरकार ने करीब 7  करोड टन अनाज की भंडारण क्षमता बढाने का एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम भी बनाया है।बताते चले  एमएसपी की  पंजाब हरियाणा में एफसीआई के पूर्ण  नेटवर्क होने से  रिकार्ड खरीद   संभव हो जाती है पर जहां एफसीआई के नेटवर्क नहीं वहां क्या होता है ?   बड़ा सवाल ये है कि देश में  फसल    केवल धान और गेहूं   नहीं है और दूसरा  देश में केवल पंजाब और हरियाणा प्रदेश नहीं हैं।   चूँकि  धान और गेहूं के अलावा बाकी उत्पादों के क्रय व भंडारण की व्यवस्था  एफसीआई  के पास नहीं है तो ऐसी सूरत में देशभर में कारपोरेट यदि निर्धारित एसएसपी दर पर क्रय, भंडारण और आपूर्ति करते तो किसान उत्पादकों का बड़ा भला होता।
दरअसल भारत सरकार एमएसपी को वैधानिक दर्जे देने को लेकर दो तरह से सशंकित है पहला कि वह इसकी वजह से देशभर में अगले पांच साल मुफत अनाज बांटने के लिए एफसीआई के लिए पर्याप्त अनाज संगृहीत  नहीं कर पायेगी  और तब  मुफ़्त अनाज की उसकी राजनीतिक गेमचेंजर योजना खतरे में पड़ जाएगी। सरकार को दूसरी चिंता ये हो रही है कि एमएसपी को वैधानिक दर्जा देने से अधिकतर कृषि उत्पादों की खासकर सीजन में सस्ते में खरीदने के  अभयस्त भारतीय उपभपोक्ताओं को ये सामान महंगा खरीदना पड़ेगा जिसका उन्हें राजनितिक नुकसान ज्यादा उठाना पड़ेगा। 

 भारत में उत्पादकों की तुलना में उपभोक्ताओं का हित राजनीतिक रूप से सदैव ज्यादा संवेदनशील रहा है। इस वजह से  पिछले साठ सालों से देश में किसानों के उत्पादों के गिरते दाम से ज्यादा उपभोक्ताओं के महंगे उत्पाद का मुद्दा पब्लिक डोमेन में ज्यादा दृष्टिगोचर हुआ है।  देश की पूववर्ती सरकारों ने भी उत्पादकों के हित को उपभोक्ताओं के हित के आगे अनदेखी की और मौजूदा मोदी सरकार भी उसी लाइन पर चल रही है । पर हमे यह समझना होगाा कि भारत की राजनीतिक रूप से सशक्त मानी जाने वाली किसान लॉबी भी सरकार की इनपुट सब्सिडी और अंडरप्राइस्ड आउटपुट की कृषि नीति को  पिछले साठ  साल से स्वीकृत करके चल रही थी । इस वजह से भारत के किसानो ने कृषि सुविधाओं के एवज में  पिछले साठ  सालो में करीब 25 लाख करोड़ का नुकसान सहा और सरकार की कुल कृषि सब्सिडी खर्च माइनस २ फीसदी बैठी ।  2010  के पहले तक किसान आंदोलन की मांगे बिजली माफी, कर्ज माफी वगैरह तक सीमित रही। एमएसपी दरों में बढोत्तरी की मांग जरूर उठती थी पर एमएसपी प्रणाली को सर्वव्यापी करने वाली कानूनी दर्जे की मांग कभी नहीं उठी। लेकिन देश का किसान समुदाय अब यह समझ चुका है कि देश की कृषि स्वालंबन व खाद्य सुरक्षा के लिए त्याग करने का उसका समय अब जा चुका है और अब वह अपनी आय सुरक्षा को पहली प्राथमिकता देना चाहता है।
दूसरी तरफ मोदी सरकार की बात करें तो  पिछले दस सालों में उसने पिछले पचास साल की तुलना में एमएसपी दरों में तुलनात्मक रूप से ज्यादा बढोत्तरी की है। साथ साथ उसने किसानो की आय को दोगुने करने का नारा भी दिया लेकिन एमएसपी का दायरा बढाकर  इसे कानूनी दर्जे देने के एक बड़े सुधार को लेकर वह बेवजह भयभीत दिखती  रही है।
आर्थिक सुधारों की समर्थक मोदी सरकार को समझना चाहिए कि एमएसपी का लीगल दर्जा उसके मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सीमम गवर्नेन्स के नारे को और बल प्रदान करेगा। सरकार को लाखों करोड रुपये और विशाल सब्सिडी जो अनाज क्रय करने के लिए लगाना पड़ता है उससे वह मुक्त होगी और वह जिममेवारी बाजार और कारपोरेट उठाएंगे। इससे सरकार को देश में सभी कृषि उत्पादों की मांग और आपूर्ति का संतुलन बिढाकर मूल्य को दीर्घकालीन रूप से नियंत्रित करने में भी भारी मदद मिलेगी। क्योंकि इस वजह से तमाम कृषि उत्पाद कभी वेहद कम दर पर तो कभी बेहद ज्यादा दर पर बिकते है और  इसी वजह से कभी ज्यादा उत्पादन तो कभी क म उत्पादन का मंजर दिखाई देता है और इसकी गज उपभोक्ताओं पर भी आये दिन पड़ती रहती है। चावल और गेहू के अलावा कई उत्पादों के  एमएसपी बढाये जाने से इनके उत्पादन को जो प्रोत्साहन मिलता है वह इनकी क्रय ,भंडारण और आपूर्ति की बुनियादी संरचना नहीं होने से उपभोक्ताओं को इनका  मूल्य स्थायित्व लाभ नहीं प्राप्त होता। यदि एमएसपी का लीगल दर्जा होता तो बाजार में  इनके मूल्य बढने के बजाए नियंत्रित होते । यही बाते अन्य कृषि उत्पादों पर भी लागू होती हैं। सब्जी और फलों के मामले में किसानो से क्रय करने का कार्य तो सरकार बिलकुल नहीं कर सकती इसे स्थानीय व्यापारी ही कर सकते है पर इनके मूल्य निर्धारण का कार्य सरकार का ही बनेगा अन्यथा सीजन में किसानो से आलू प्याज और टमाटर २ रुपये किलो की दर से ख़रीदा जाता रहेगा। जरुरी नहीं एमएसपी का नियमन केवल केंद्र करें इसे राज्यों और स्थानीय इकाईओं को भी अधिकृत किया जा सकता है।
हमे यह समझना होगा  गन्ने का मूल्य निर्धारण देशव्यापी रूप में वैधानिक न्यूनतम मूल्य यानी एसएमपी के जरिये  होता है। गन्ने की कटाई सीजन में चाहे कितनी आपूर्ति बढ जाए किसान से  निर्धारित मूल्य से  कम दर पर ना तो निजी मिलें और ना ही सरकारी व  सहकारी  मिले 
कोई   नहीं खरीद सकती । यही स्थिति दूध के साथ है जिसे वाजिब निर्धारित मूल्य पर किसानों से खरीदने की बाध्यता से  दूध के उपभोक्ता मूल्य का दो तिहाई हिस्सा सीधे किसानो को हासिल हो जाता है। दूध और गन्ना का लाभकारी माडल देश के सभी 36  उत्पादों में लागू हो जाए तो फिर किसानी कम से कम घाटे का पेशा नहीं रहेगी। और इससे बड़ा फायदा उपभोक्ता को  मिलेगा जो मांग और आपूर्ति के असंतुलन की वजह से  एमएसपी और एमआरपी के बीच के भारी अंतर यानी  मूल्य वृद्धि का गाहे बगाहे शिकार होता है।   तीसरा देश के निजी क्षेत्र का विशाल निवेश जो कृषि की तमाम गतिविधियों के लिए आगे नहीं आ रहा उसे एक नया  अवसर प्राप्त होगा। चौथा सरकार को इस कदम से  एक बड़े वित्तीय बोझ से मुक्ति मिलेगी और सार्वजनिक निवेश की किल्लत झेल रहीं देश की  कृ षि में बहुआयामी निवेश व रोजगार का वातावरण तैयार होगा।

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