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सिख राज्य की कल्पना ना करे सिख संगत 

 
प्रो: नीलम महाजन सिंह 
कहां तो एक तरह, ‘सिखों के दस गुरूओं की पादशाही’ है और कहां अब आतंकवादी संगठन व सीख राज्य के समर्थक फिर से ‘खालिस्तान’ की माँग कर रहें है। धर्म, जाति, अर्थतंत्र या सामाजिक मतभेद के कारण, क्या प्रजातंत्र को नकारा जा सकता है? फिर ‘निशान साहिब’ को भगवे झंडे पर अंकित कर, उसे ‘खालिस्तान का झंडा’ भी माना जानने लगा है। 1984 के ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार व सिख नरसंहार’ के बाद का रोष, विदेश में रहने वाली सिख संगत में अभी भी है। ‘खालिस्तान आंदोलन’ एक अलगाववादी आंदोलन है जो पंजाब क्षेत्र में खालिस्तान (ਖ਼ਾਲਿਸਤਾਨ, ‘खालसा की भूमि’) नामक जातीय-धार्मिक संप्रभु राज्य की स्थापना करके; सिखों के लिए एक मातृभूमि बनाने की मांग कर रहा है।खालिस्तान की प्रस्तावित सीमाएँ विभिन्न समूहों के बीच अलग-अलग हैं; कुछ पंजाब राज्य की संपूर्णता का सुझाव देते हैं, जबकि बड़े दावों में पाकिस्तानी पंजाब और उत्तर भारत के अन्य हिस्से जैसे चंडीगढ़, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं। शिमला और लाहौर को खालिस्तान की राजधानी के रूप में प्रस्तावित किया गया है। खालिस्तान के प्रस्तावित झंडे को अक्सर खालिस्तान आंदोलन के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के मद्देनज़र, एक अलग सिख राज्य का आह्वान शुरू हुआ था। 1940 में खालिस्तान के लिए पहला स्पष्ट आह्वान ‘खालिस्तान’ नामक एक पैम्फलेट में किया गया था। ‘सिख डायस्पोरा’ के वित्तीय और राजनीतिक समर्थन के साथ, पंजाब में यह आंदोलन फला-फूला – जिसकी आबादी सिख-बहुल है। यह 1970 और 1980 के दशक के दौरान जारी रही और 1980 के दशक के अंत में अपने चरम पर पहुंच गई। सिख अलगाववादी नेता कर्नल जगजीत सिंह चौहान ने, इंग्लैंड से दावा किया कि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद; पाकिस्तानी प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ बातचीत के दौरान, भुट्टो ने खालिस्तान के लिए ‘पूरी मदद’ का प्रस्ताव दिया था। लेकिन यह समर्थन कभी भी अमल में नहीं आया। इसमें कुछ प्राचार ही है।1990 के दशक में, उग्रवाद समाप्त हो गया और अलगाववादियों पर, केपीएस गिल, आईपीएस, महानिदेशक पंजाब पुलिस ने भारी पुलिस कार्रवाई की। गुटीय लड़ाई व सिख आबादी से मोहभंग सहित कई कारणों से आंदोलन अपने उद्देश्य तक पहुंचने में विफल कर दिया गया। 1984 के ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के दौरान मारे गए लोगों के विरोध में, वार्षिक प्रदर्शनों के साथ, भारत व सिख डायस्पोरा के भीतर कुछ समर्थन अभी भी जागृत है। 2018 की शुरुआत में, पंजाब पुलिस द्वारा कुछ उग्रवादी समूहों को गिरफ्तार किया गया था। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने दावा किया है कि हाल के उग्रवाद को पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस व कनैडा, इटली और ब्रिटेन में ‘खालिस्तानी हमदर्दी प्राप्त है। संगरूर से 2022 में चुने गए; सिमरनजीत सिंह मान, आईपीएस; वर्तमान में भारतीय संसद में खुले तौर पर ‘एकमात्र खालिस्तानी समर्थक सांसद हैं’ व उनकी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर), वर्तमान में भारतीय संसद में एकमात्र खालिस्तान समर्थक पार्टी है। अंग्रेज़ों द्वारा अपनी विजय से पहले, पंजाब के आसपास के क्षेत्र पर; बंदा बहादुर द्वारा स्थापित सिख मिस्लों के संघ द्वारा शासन किया गया था। 1767 से 1799 तक मिसलों ने पूरे पंजाब पर शासन किया। जब तक महाराजा रणजीत सिंह द्वारा 1799 से 1849 तक ‘सिख साम्राज्य में उनका एकीकरण’ नहीं किया गया। 1849 में दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध के अंत में, सिख साम्राज्य अलग-अलग रियासतों व पंजाब के ब्रिटिश प्रांत में भंग हो गया। नए विजित क्षेत्रों में, ‘धार्मिक-राष्ट्रवादी, ब्रिटिश का आंदोलन – ‘फूट डालो और राज करो’, की प्रशासनिक नीतियों के जवाब में उभरा: हिंदू, सिख व मुसलमानों को परिवर्तित करने वाले ‘ईसाई मिशनरियों की कथित सफलता’। एक आम धारणा है कि भारत के धार्मिक समुदायों के बीच पतन का समाधान ज़मीनी स्तर का धार्मिक पुनरुत्थान था। 1930 के दशक में जैसे ही ब्रिटिश साम्राज्य का विघटन शुरू हुआ, सिखों ने ‘सिख मातृभूमि’ के लिए अपना आह्वान किया। जब ‘मुस्लिम लीग’ के लाहौर प्रस्ताव में मांग की गई कि पंजाब को एक मुस्लिम राज्य बनाया जाए, तो अकालियों ने इसे ऐतिहासिक रूप से सिख क्षेत्र को हड़पने के प्रयास के रूप में देखा। जवाब में, शिरोमणि अकाली दल ने एक ऐसे समुदाय के लिए तर्क दिया जो हिंदुओं और मुसलमानों से अलग था। अकाली दल ने खालिस्तान की कल्पना पटियाला महाराजा के नेतृत्व में अन्य इकाइयों के प्रतिनिधियों वाली कैबिनेट की सहायता से एक धार्मिक राज्य के रूप में की थी। देश में पंजाब के कुछ हिस्से, पाकिस्तान (लाहौर सहित) और शिमला पहाड़ी राज्य शामिल होंगें। भारत के विभाजन, के उपरांत डायस्पोरा में ‘उद्भव भारत के बाहर की घटनाएं’ कथा के अनुसार, विशेष रूप से 1971 के बाद, खालिस्तान के एक सम्प्रभु व स्वतंत्र राज्य की धारणा उत्तरी अमेरिका और यूरोप में सिखों के बीच लोकप्रिय होने लगी। यह एक क्रांतिकारी फैशन भी था। ऐसा ही एक खाता खालिस्तान काउंसिल द्वारा प्रदान किया गया है, जिसका पश्चिम लंदन में लंगर था, जहां खालिस्तान आंदोलन को 1970 में शुरू किया गया था। दविंदर सिंह परमार 1954 में लंदन चले गए। परमार के अनुसार, उनकी पहली खालिस्तान समर्थक बैठक में 20 से कम लोगों ने भाग लिया था और उन्हें केवल एक व्यक्ति का समर्थन प्राप्त करने के लिए पागल करार दिया गया था। परमार ने अपने प्रयासों को जारी रखा।अंततः 1970 के दशक में उन्होंने, बर्मिंघम में खालिस्तानी झंडा उठाया। 1969 में पंजाब विधानसभा चुनाव हारने के दो साल बाद, भारतीय राजनेता; जगजीत सिंह चौहान, खालिस्तान के निर्माण के लिए अपना अभियान शुरू करने के लिए यूनाइटेड किंगडम चले गए। चौहान के प्रस्ताव में पंजाब, हिमाचल, हरियाणा और साथ ही राजस्थान के कुछ हिस्से शामिल थे। परमार और चौहान 1970 में मिले और औपचारिक रूप से ‘लंदन प्रेस कॉन्फ्रेंस में खालिस्तान आंदोलन’ की घोषणा की। सारांशार्थ यह कहना सत्य है कि सिख समुदाय द्वारा बिना किसी समर्थन के ‘कट्टरपंथी फ्रिंज’ को बड़े पैमाने पर खारिज कर दिया गया है। भारत को आज़ाद हुए छेअतर वर्ष हो गए हैं। कब तक हम हर धर्म पर आधारित, राज्यों की मांग करते रहेंगें? ‘ओलिगारकी’: धर्म पर आधारित राज्य, भारत की सम्प्रभुता के लिए नुकसानदायक हैं। हालाँकि धर्म, जातिवाद, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को देश के राजनीतिक दलों को सख्ती से निपटने का प्रयास करना चाहिए, ना कि देश से अलगाववादी राज्यों की स्थापना करने का आह्वान!
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पंजाब में शांति के फूल या आतंकवाद की ज़ंजीरें 

 
 प्रो: नीलम महाजन सिंह
आरंभ में ही मैं यह कहना चाहती हूँ कि मैंने 1980 के दशक में पंजाब में उग्रवाद को कवर किया था। एक युवा महिला पत्रकार के रूप में, छोटे से बच्चे, युवराज सिद्धार्थ सिंह के साथ, जिसे मैं कवरेज के दौरान अपने साथ ले जाती थी, कोइ आसान कार्य नहीं था! 80 के दशक में पत्रकारों ने उग्रवाद, सशस्त्र विद्रोह और रक्तपात को बहादुरी के साथ कवर किया। कुछ पत्रकारों के साथ एक साक्षात्कार में, मैंने ‘संत जरनैल सिंह भिंडरावाले’ के सात साक्षात्कार किया था। भिंडरावाले के साथ मेरे साक्षात्कार के कुछ अंश; ‘दी वीक’ और ‘रविवर’ पत्रिकाओं में कवर स्टोरी के साथ प्रकाशित हुए। हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक अवलोकन किया कि, कैसे 80000 पुलिसकर्मियों वाली पंजाब राज्य पुलिस एक व्यक्ति, अमृत पाल सिंह को गिरफ्तार नहीं कर सकती? ‘वारिस पंजाब दे’ के आधुनिक, जुझारू अमृतपाल सिंह’ का अचानक ही उदय कैसे हुआ? हालांकि, ज़मीनी परिस्थिति जो भी हो, निश्चित रूप से फैसले लेना मुश्किल है। पंजाब उग्रवाद में उबल नहीं रहा है। पंजाब एक लोकतांत्रिक राज्य है, जहां ‘आम आदमी पार्टी’ के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान की चुनी हुई सरकार है। पंजाब एक अति संवेदनशील राज्य है, क्योंकि इसकी सीमाएँ पाकिस्तान से जुड़ी हुई हैं। यह अफगानिस्तान से ‘ड्रग्स रूट’ के कारण अत्यधिक असुरक्षित है। यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया जाए कि पंजाब की वर्तमान स्थिति; हालाँकि इसकी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है, की तुलना किसी भी तरह से 1980 के दशक के गहन उग्रवाद से नहीं की जा सकती है। वास्तव में यह रक्तरंजित, निर्दोष लोगों की हत्या थी, जिन्हें बड़ी संख्या में उन्हें बेरहमी से मार डाला गया था। तथाकथित उग्रवादियों को एक राजनीतिक दल का संरक्षण भी प्राप्त था! एक गलत राजनीतिक सलाह; ऐतिहासिक भूल को जन्म दे सकती है। जैसे अमृतसर के ‘स्वर्ण मंदिर पर सेना का आक्रमण’! अकाल तख्त को गोलियों से छलनी कर देने वाली इस घटना को, सिक्ख समुदाय आज तक नहीं भूला पाया है। बावजूद इसके उन्होंने स्थिति से समझौता कर लिया है। सशस्त्र पुरुष और धर्म कोई नई बात नहीं है। धर्म व हथियार; ऐतिहासिक रूप से जुड़े हुए हैं; चाहे वह हिंदू धर्म हो, ईसाई, इस्लाम या सिख धर्म। एक सभ्य समाज में; विभिन्न धर्मों का ‘सिंक्रनाइज़ेशन’; समनजसय महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से हर धर्म, दूसरे धर्मों पर अपनी श्रेष्ठता दिखाने का प्रयास करते हैं, हालांकि सभी धर्म ‘ईश्वर की महिमा के लिए एक ही मार्ग की ओर ले जाते हैं’। हमने विश्व स्तर पर देखा है कि प्रतिष्ठित राजनीतिक दल; धार्मिक सशस्त्र आंदोलनों को संरक्षण देते हैं। भारत के एक प्रधान मंत्री ने संत जरनैल सिंह भिंडरावाले को संरक्षण दिया। बेशक, ‘दी होली गोल्डेन टेंपल’ में देश-विरोधी, खालिस्तान समर्थक गतिविधियां हो रहीं थीं, लेकिन जनरल एस: सुंदरजी और राजीव गांधी के मित्र, अरुण सिंह, जिन्होंने स्वर्ण मंदिर का हवाई सर्वेक्षण भी किया था; ‘दरबार साहेब – गर्भगृह अकाल तख्त’ में सेना के आक्रमण की सलाह से, भारत का राजनीतिक इतिहास बदल दिया! दुनिया भर में सिखाई भावनाओं को गहरा आघात पहुँचा था। इसके कारण प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की, उनके ही बंदूकधारियों, सतवंत सिंह और बेअंत सिंह द्वारा निर्मम हत्या कर दी गई। दिल्ली में हुए खूनी दंगों की तबाही सिक्ख संगत आज तक नहीं भूल सकी! इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सीख कत्ले-आम में 3500 सिखों के मारे जाने का अनुमान है।इससे सिख युवकों की दो पीढिय़ां कट्टरपंथी बन गईं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गांधी, यूपीए; अध्यक्ष ने; दरबार साहब पर सैन्य हमले और 1984 के दंगों में सिखों की हत्या के लिए माफी मांगी है। निश्चित रूप से इंदिरा गांधी के सलाहकार, अन्य रणनीति बना सकते थे; जिससे स्वर्ण मंदिर से उग्रवादियों को भगाने का कोई और तरीका अपनाया जा सकता? राजनैतिक नेतृत्व के साथ मतभेदों के कारण विभिन्न धर्मों के युवाओं का कट्टरपंथीकरण हो रहा है। आज पंजाब में अमृतपाल सिंह की तलाश हो रही है। क्या अमृतपाल को ‘ओवरप्ले किया’ गया है? राज्य अब इस नैरेटिव पर हावी हो रहा है। राज्य राजनैतिक व संभावित ध्रुवीकरण से कैसे निपटता है, यह देखा जाना बाकी है। ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह और उनके साथियों के खिलाफ कार्रवाई के बीच रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने फ्लैग मार्च किया। दूरदर्शिता के साथ, यह कहना उचित है कि अमृतपाल सिंह को अगस्त 2022 में भारत लौटने के बाद जल्द गिरफ्तार किया जाना चाहिए था। उसके बाद उसके अपराध लगभग तुरंत शुरू हो गए, यहाँ तक कि उसका समर्थन आधार बढ़ने लगा। इससे भी बदतर, दोनों राजनीतिक और प्रशासनिक बयानों में और मीडिया के अनुमानों में, एक ‘जीवन से भी बड़ी छवि’ बनाई जा रही थी, जो उसके वास्तविक महत्व के अनुपात से बहुत दूर थी। राज्य व उसकी एजेंसियों को निश्चित रूप से उनकी विफलताओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। सनसनीखेज मीडिया ने गैर-जिम्मेदार मिथक-निर्माण, गैर आलोचनात्मक कार्य किया। ‘भिंडरावाले 02’, 1980 के दशक में कथित वापसी, उनकी स्पष्ट रूप से ध्यानाकर्षित करने वाली हरकतों का लगातार कवरेज, चापलूस साक्षात्कारों की श्रृंखला व अन्य अतिश्योक्ति व रिपोर्टिंग में विकृतियों ने, अमृतपाल सिंह के कार्यों को बढ़ाकर पेश किया, उसे मंच प्रदान किये, जो अन्यथा उसे कब्ज़ा करने के लिए संघर्ष करना पड़ता! सितंबर 1981 में पंजाब पुलिस ने ‘दमदमी टकसाल के प्रमुख जरनैल सिंह भिंडरावाले’ को सांसद लाला जगत नारायण, जालंधर स्थित अखबार ‘पंजाब केसरी’ के मुख्य संपादक और मालिक; हिंद समाचार ग्रुप ऑफ पेपर्स, जिनकी 9 सितंबर को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी; ‘हत्या की साज़िश में कथित भूमिका’ के लिए गिरफ्तार करने का फैसला किया। भिंडरावाले ने 20 सितंबर, 1981 को चौक मेहता, अमृतसर में एक भीड़ को संबोधित करते हुए कहा था कि सरकार उन्हें कभी भी मार सकती है। जैसा ही पंजाब पुलिस ने पिछले हफ्ते, अमृतपाल सिंह पर अपनी कार्रवाई शुरू की, कई लोगों ने राज्य में वर्तमान स्थिति और 1980 के दशक की शुरुआत के बीच समानताएं आरंभ कर दीं। लेकिन यह सच्चाई से कहीं दूर है। सारांशार्थ; अमृत पाल सिंह ना ही संत है, ना ही पंजाब के युवाओं का शुभचिंतक। वो मात्र आतंकी है, जो भारत की संप्रभुता को खण्डित करने का प्रयास कर, दीप संधू की हत्या के बाद, अन्तर्राष्ट्रीय षड्यन्त्र का हिस्सा है। के.पी.एस. गिल, आईपीएस, ने कठिन निर्णय लेकर पंजाब में आतंकवाद को नियंत्रित किया था। हालाँकि उन पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप भी लगे। अब केन्द्रिय व पंजाब सरकार को एकजुटता से इस विषम परिस्थिति को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। पंजाब में शांति के फूल खिलें और आतंकवाद की जंजीरों को तोड़ा जाना, समय की पुकार है।
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प्रो: नीलम महाजन सिंह 
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक समीक्षक व इतिहासकार)

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