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संविधान पर सार्थक बहस नहीं हुई

संविधान पर सार्थक बहस नहीं हुई

मनोहर मनोज

देश में संविधान  के 75 साल के सफर पर भारतीय संसद में जो दो दिन की बहस करायी गई वह बेहद स्वागत योगय पहल थी लेकिन संविधान के जिन जिन पहलुओं पर वहां बहस की गई वह देश के पालीटिकल थियेटर का एक महज एक स्टीरियोटाइप आखयान ही साबित हुआ । दलीय लोकतंत्र के दबाव में पार्टी लाइन आधारित टाइप्ड भाषण और उबाउं पालीटिकल नैरेटिव से भरे संवादों के इतर संसद के इस बहस में भारतीय संविधान की एक संपूर्ण , ईमानदार और समालोचनात्मक बौद्धिक विमर्श का सर्वथा अभाव था । संसद के इस बहस में राजनीतिक पार्टियों के आरोपों प्रत्यारोपों और फिर राजनीतिज्ञों में अपने को इतिहास पुरूष  तथा  अपने प्रतिद्वंधी को गलत साबित करने की होड़ दिखायी पड़ी। यदि इन दलीय नेताओं के भाषणों की  सटीक परख की जाए तो कुछ भाषण प्रभावशाली थे, लेकिन कुल मिलाकर ये सभी भाषण पालीटिकल करेक्टनेस की चासनी से ही सराबोर थे। 
 
देखा जाए तो देश ने अपने सबसे बड़े पंचायत संसद के पटल पर दुनिया के सबसे बड़े भारतीय संविधान की एक बेहतरीन मीमांसा करने का एक बेहद माकूल वक्त खो दिया। देश के लोकतंत्र, बहुपहचानीय समाज औैैर आधुनिक शासन पद्धति तथा उच्च कोटि की सुशासन व समावेशी राजव्यवस्था के मद्देनजर भारतीय संविधान के हर पहलू पर दृष्टिपात किया जाना बेहद जरूरी था। पहला भारत में असल व आधुनिक लोकतंत्र का प्रसार, दूसरा इसका राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक विभिन्नता व भौगोलिक अखंडता, तीसरा धर्मनिरपेक्षतावाद और चौथा सामाजिक न्याय व अवसर की समानता। मोटे सैद्धांतिक तौर पर भारतीय संविधान की व्याक्खा इन चारों कसौटियों को ध्यान में रखकर किया जा सकता था। उपरोक्त चारों कसौटी पर भारतीय संविधान की कार्यगत सफलता का पैमाना इस बहस के जरिये बड़े अच्छे तरीके से निर्धारित किया जा सकता था। मिसाल के तौर पर भारत में लोकतंत्र को लेकर ये बातें जरूर कही गई कि एक दल ने आपातकाल लाकर लोकतंत्र का गला घोंटा तो दूसरे ने कहा कि आपातकाल का वह दौर तो एक निर्धारित समय के लिए था लेकिन अभी देश में एक दशक से अघोषित आपातकाल चलायमान है। दोनो बातें ठीक है पर इसे लेकर दोनो पक्षों को यह भी आत्मावलोकन करना होगा कि हमारा लोकतंत्र देश के राजनीतिक दलों के मठाधीषों के मनमर्जीवाद की कोएटरी में क्यों कैद है ? हमारा दल आधारित लोकतंत्र देश में सभी लोगों की लोकतांत्रिक भागीदारी और सर्वथा योगय उममीदवारी को कहीं से भी प्रोत्साहित क्यों नहीं नहीं करता? किसी भी लोकतंत्र में व्यक्ति पूजा और राजनीतिक दलों के एकाधिकार या द्वैधाधिकार के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। ठीक है कि अमेरिका में भी दो दलीय प्रणाली चलायमान है, पर वहां अच्छी बात ये है कि कोई कितना भी लोकप्रिय राष्ट्रपति क्यों ना हो उसे दो बार ही इस पद को पाने का मौका मिलता है। भारत में लोकतंत्र की असलियत ये है कि कोई भी अपराधी अज्ञानी सामंत भ्रष्टाचारी अपने सभी कुकृत्य को छिपा सकता है यदि वह सत्ताधारी दल में शामिल हो जाता है। ये ठीक है कि संसद के  इस बहस में उस राजनीतिक वंशवाद पर भी चर्चा हुई जिसमे संलगन तमाम दलीय नेता इस आधुनिक काल  में भी  भारत के मध्ययुगीन सामंतवाद की याद दिलाते हैं।

बहस के दूसरे आधारभूत पहलू राष्ट्रवाद को लेकर बात की जाए तो भारत के राष्ट्रवाद की एक व्यापक रूपरेखा व सहमति संविधान के जरिये भारत के सभी दलों में अनुगूंजित व मान्य होनी चाहिए। मिसाल के तौर पर एक दल जहां भा रत माता की जय लगाकर राष्ट्रवाद को पोसने की बात कर इतने गंभीर मसले का सरलीकृत कर दे ता है वही दूसरा दल देश के सांप्रदायिक विभाजन को स्वीकृति प्रदान करने के उपरांत भी देश में समावेशी लोकतंत्र के नाम पर भौगालिक विखंडता को पनपाने की प्रवृति प्रदर्शित करता है। भारतीय संविधान में ये बात साफ साफ उच्चरित होनी चाहिए कि देश का विभाजन एक भयानक भूल थी जिसमें अब ये नयी बात उद्घोषित होनी चाहिए की इसे  हम बाद में भी ठीक करेंगे और देश में अलगाववाद की किसी भी प्रवृति को किसी भी सूरत में पनपने से पहले कुचल देंगे 
भारतीय संविधान को लेकर तीसरा आधारभूत बिंदू धर्मनिरपेक्षता को लेकर है जिसका सभी दल अपनी अपनी सुविधा के मुताबिक इसकी मीमांसा करते आए हैं। असल में धर्मनिरपेक्षता संविघान के एक ऐसे मजबूत मूल सिद्धंात के रूप में सभी लोकतांत्रिक दलों में मान्य होने चाहिए जो किसी तरह से चुनाव और सार्वजनिक बहस में दोबारा उल्लखित नहीं होनी चाहिए।  देश में आजादी के उपरांत ही धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों से  जो खिलवाड़ किया जाता रहा और फिर उसके प्रत्युत्तर में धर्मनिरपेक्षता के विचार  का जो मजाक बनाया जाता रहा है , इन दोनो ही नैरेटिव के जरिये संविधान का भारी उल्लंघन किया जाता । इस मामले में सबसे बड़ा अपराध उनका है जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता को असल स्वरूप में लागू ना कर सामुदायिक तुष्टीकरण को उसका विकल्प बना दिया। ऐसे में स्यूडो सेकुलरिज्म या छद्म धर्मनिरपेक्षता की परिपार्टी का जो आगमन हुआ वह इस महान शब्द के खिलवाड़ के साथ भारतीय संविधान का भी अपमान करता रहा है। इस तुष्टीकरण की सबसे बड़ी मिसाल मौलिक अधिकारों में अल्पसंखयकों को अपने धार्मिक शिक्षण चलाने के मिले मौलिक अधिकार से दिखती है। एक तरह से धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा अपमान संविधान में दर्ज है। विखयात इतिहासकार इरफान हबीब भी मानते हैं कि अल्पसंखयकों को शिक्षण संस्थान चलाने का मौलिक अधिकार मिला है पर इस  संवैधानिक अधिकार का तकाजा ये है कि इसका पाठय़क्रम भी सेकुलर हो। छदम सेकुलरवाद गलत है पर सेकुलरवाद गलत नहीं हैं। एक राजनीतिक जमात सेकुलरवाद के नाम पर तुष्टीकरण और संविधान को गुलशन का बगिया बताकर छदम सेकुलरवाद का ध्वज पोषित करता है तो दूसरी तरफ दूसरा जमात सेकुलरवाद को बुलडोज कर बहुसंखयक पहचान की राजनीति के जरिये प्रतियोगी लोकतंत्र व सुशासन के सिद्धांतों का गला घोटता है। एक दल दूसरे पर संविधान को मटियामेट करने का आरोप लगाता है तो दूसरा प्रत्युत्तर में यह कहता है कि देश संविधान से चलेगा, शरिया से नहीं । ऐसे में सवाल ये है कि इस विभ्रम स्थिति में किसे सच माना जाए? नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत भारतीय संविधान समूचे देश में समान नागरिक संहिता लाने की बात करता है पर सेकुलरपंथी भी इसे अमलीभूत करने से क्यों घबराते हैं? यानी दोनो गलत है और संविधान मूक बनकर खुद अपनी अवमानना झेलने को अभिशप्त है।  संविधान के 75 साल के अवसर पर इन बातों की पूरी अहर्निश व्याखया होनी चाहिए जो नहंी हुई।
संविधान के चौैथे  आधारभूत सिद्धांत सामाजिक न्याय जिसका सबसे बड़ा सुप्त वाक्य स्वयं संविधान की प्रस्तावना में अवसर की समानता के  रूप में उल्लिखित है वह भारत के व्यावहारिक लोकतंत्र और प्रशासनिक संरचना में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। संविधान पर बहस के बहाने सामाजिक न्याय जो सांकेतिक रूप से केवल राजनीतिक प्रशासनिक आरक्षण केेेे प्रावधानों के इर्द गिर्द मंडराता रहा है, संविधान के बहस में असल रूप में कहीं उल्लिखित नहीं हुआ।  क्योंकि सामाजिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों के क्रियान्वन का महाकार्य जो देश की अस्सी फीसदी दलित दमित शोषित पीडि़त और गैरजागरूक आबादी के व्यापक सशक्तीकरण  के जरिये होने चाहिए, वह देश के राजनीतिक और चुनावी डिस्कोर्स से बाहर है। सशक्तीकरण के सभी वैज्ञानिक एजेंडे रसूखवाद जुगाडवाद सिफारिशवाद के सामने बेबस होकर देश के केवल अभिजात राजनीतिक प्रशासनिक शखिसयतों के हितों का पोषण करते हैं और बाकी बहुसंखयक जमात के लिए अवसर की समानता उलटे  घोर असमानता के रूप में परिलक्षित होती  हैं।
कुल मिलाकर भारत के लोकतंत्र में उसका खानापूर्तिवाद अहम  है और  योगयता , पात्रता, प्रोत्साहन, सशक्तीकरण और उच्च वैचारिक चेतना का प्रसार निहित स्वार्थी तत्वों व बीमार और असमीक्षित सिस्टम के साये तले कुंद बन कर रह रही  हैं।
पालीटिकल करेक्ट नेस और इनकरेक्टनेस के साये तले सिस्टम समाज और सरकार की सही समीक्षा नहीं होना और उसका धनसत्ता] बाहुबल सत्ता,मध्ययुगीन सामंती सत्ता के नये अभिजात रूपों, जाति धर्म प्रांत और भाषा की पहचान सत्ता, मुफतखोरी व खजानालुटावनवाद और उकसाउं भडक़ाउं और झूठ पर आधारित पालीटिकल नैरेटिव ये सभी तत्व भारतीय लोकतंत्र पर हावी होकर भारतीय संविधान के महान आदर्शों को चिढाए जा रहे हैं। इसकी पूरी समीचीन व्याखया संविधान के बहस के बहाने होनी चाहिए थी और उसी के मुताबिक लोकमत व जनमत के हिसाब से संवैधानिक उपचारों को भी रुपायित किया जाना चाहिए था  जो दुर्भाग्य  से इस बहस में निर्धारित नहीं हो पाया । 

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