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रेवड़ी फेको चुनाव जीतो; लोकलुभावनवादी लोकतंत्र की चुनावी तस्वीरें

रेवड़ी फेको चुनाव जीतो
लोकलुभावनवादी लोकतंत्र की चुनावी तस्वीरें

मनोहर मनोज


भारत के चुनावी लोकतंत्र का अभी जो सबसे बड़ा वर्तमान सच उभर कर सामने आया है वह है रेवड़ी फेंको और चुनाव जीतो। अभी महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव केे परिणाम को देखें और उसके पहले हरियाणा के चुनाव परिणाम पर गौर करें तो यह बात साफ हो गई कि तीनो जगह मतदाताओं ने सत्ताधारी दल को ही जिताने का काम किया। झारखंड महाराष्ट्र और हरियाणा तीनों जगह सत्ताधारी दल ने सत्ता में होने का फायदा उठाकर राजखजाने का दिल खोलकर इस्तेमाल किया और अंत समय में अपने बिफर चुके मतदाताओं को अपने पाले में करने में सफलता हासिल कर ली। ये बातें इसलिए समीचीन साबित हो रही है कि इन तीनो राज्यों में छह माह पूर्व राजनीतिक परिदृश्य एंटी इन्कंबेंसी का था जो मतदान तक आते आते प्रो इन्कंबेंसी में बदल गईं।
कहना होगा कि आजाद भारत के चुनावी लोकतंत्र की जो सबसे बड़ी खासियत पहचान की राजनीति यानी जाति धर्म भाषा और प्रांत के रूप के धुरंधर इस्तेमाल के रूप में दिखती आ रही थी, जिसमे धन सत्ता और बाहुबल की सत्ता का तडक़ा लगा करता था अब उसमे लोकलुभावनवाद और खजाना लुटावनवाद की राजनीति ने बड़ी मजबूती से अपने पैर जमाने शुरू कर दिये हैं। हांलांकि विगत में भी भारत में लोकलुभावनवादी राजनीति के कई  दृष्टांत दिखायी पड़ते थे जैसे तमिलनाडु में कभी गाय, कभी जेवरात, कभी रेडियो, कभी मोबाइल बांटने की बातें आईं। इसके पहले कई राज्य सरकारों द्वारा किसानों की कर्ज माफी का भी चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किया गया। पर दिल्ली में आप पार्टी द्वारा एक सीमा तक मुफत बिजली, पानी और बाद में महिलाओं के मुफत बस यात्रा का जो प्रावधान परोसा गया वह लोकलुभावनवाद उनकी राजनीति का स्थायी हिस्सा बन गया। कांग्रेस पार्टी जो पहले लोकलुभावन राजनीति के तहत कर्ज माफी पर ज्यादा यकीन करती थी जिसने 2009 का लोकसभा चुनाव किसानों की कर्जमाफी के आधार पर जीता भी। वही इंदिरा गांधी के जमाने में पीडीएस के जरिये रियायती दरों पर खाद्यान्न उस समय की पालीटिक्स का एक बड़ा फौडर बन गया था। लेकिन आप पार्टी ने दिल्ली में जो मुफत बस बिजली पानी का कल्ट शुरू किया उसे कांग्रेस पार्टी ने कर्नाटक के पिछल्ेा विधानसभा चुनाव में हूबहू अपनाया और वहां जीत भी हासिल की। वहीं नरेन्द्र मोदी सरकार ने इंदिरा के जमाने के सस्ता राशन को रेवड़ी की राजनीति के तौर पर अपना लिया। इसके तहत कोविड के  आपदा काल में शुरू की गई भारत सरकार की मुफत राशन योजना को चुनावों को ध्यान में देखते हुए मोदी सरकार द्वारा अगले पांच साल के लिए बढा दिया गया।
देखा जाए तो भारत के इस चुनावी लोकतंत्र में रेवड़ी की इस नयी प्रचलित राजनीति का अच्छा पक्ष भी है और बुरा पक्ष भी। अच्छा पक्ष ये दिखायी पड़ता है कि देश की आधी आबादी महिला अब सभी दलों के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण राजनीतिक क्लास बन चुकी है। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के लिए जहां दलित आदिवासी और पिछड़ा एक राजनीतिक क्लास के रूप में हमारे राजनीतिक कल्ट में पहले से स्थापित था। वही सामान्य तौर पर ं किसान -मजदूर और युवा यही तीन पेशेवर सामाजिक संवर्ग राजनीतिक दलों के लिए सर्वदा उच्चरित राजनीतिक मतदाता वर्ग हुआ करते थे जिसमे अब महिला एक चौथी सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक जेंडर मतदाता वर्ग बनकर उभरी है।
देखा जाए तो मध्य प्रदेश राज्य में सर्वप्रथम महिलाओं को ध्यान में रखकर शुरू की गई लाडली बहन और गृह लक्ष्मी योजना सदृश योजनाएं अब करीब करीब सभी राज्यों ने अपना लिया है और अभी इन तीन चुनावी राज्यों यानी हरियाणा महाराष्ट्र और झारखंड इन तीनों में यहां की चुनाव पूर्व की सरकारों ने महिलाओं को मिलने वाले मासिक वजीफे में जबरदस्त बढोत्तरी की। इसका नतीजा ये हुआ कि इन तीनों राज्यों में महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत विगत के चुनावों से काफी ज्यादा बढा जिसने सत्तारूढ दल को वरीयता दी। कहना होगा कि भारत में उपेक्षित मानी जाने वाली महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के साथ साथ राजनीतिक सशक्तीकरण की दृष्टि से यह नया रेवड़ी कल्चर भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरू कर चुका है। भारत के राजनीतिक दलों ने पहली बार आधी आबादी के मतों का महत्व बड़ी शिद्दत से आत्मसात कर लिया है जो एक  बेहतर घटनाक्रम है। पर दूसरी ओर इस रेवड़ी की राजनीति का जो दुखद पक्ष दिखता है वह ये है कि इससे अर्थव्यवस्था में संसाधनों के बेहतर व उत्पादक इस्तेमाल की प्रक्रिया हतोत्साहित हो रही है और खैरात व रेवड़ी की राजनीति लोगों की वास्तविक उत्पादकता को क्षीण कर रही है। यह ठीक है कि आधुनिक राजव्यवस्था में धनवानों पर करारोपण और निर्धन वर्ग में उसका हस्तानांतरण एक प्रगतिशील व  प्रचलित मोड व गवर्नेन्स माना जाता है। पर सरकारों के आर्थिक प्रशासन का एक आदर्श पैमाना क्या हो जिसमे आर्थिक संसाधनों व कर राजस्व के आबंटन व स्थानांतरण का विस्तृत दिशा निर्देश संवैैधिानिक रूप से स्टेटक्र ाफट का हिस्सा बनें तो वह स्थिति ज्यादा बेहतर होती। मिसाल के तौर पर एक कल्याणकारी सरकार को सबसे पहले अपने नागरिकों के लिए आंतरिक व बाह्य सुरक्षा, दूसरा मानव विकास यानी शिक्षा स्वास्थ्य सफाई तथा तीसरा एक व्यापक सामाजिक सुरक्षा का इकोसिस्टम प्राथमिकता में दर्ज होना चाहिए । और इसी की परिधि व त्रिज्या में राजनीतिक दलों को अपने वादे व घोषणापत्र निर्धारित करने चाहिए। दूसरा पैमाना ये है कि अर्थव्यवस्था के लिए बुनियादी संरचना की समस्त जरूरतें व सुविधाएं एक समुचित प्रयोग शुल्क के साथ मुहैय्या करना भी इसी दिशा निर्देश का हिस्सा होना चाहिए। यदि जनता के सामाजिक आर्थिक कल्याण की व्यापक फलक पर बात करें तो एबल को रोजगार और डिसेबुल को पेंशन तथा डिपेंडेट पापुलेशन को शिक्षा चिकित्सा और स्टाइपेंड। यही सूत्र वाक्य होना चाहिए। उपरोक्त सभी मामलों में यदि सरकार के साथ निजी क्षेत्र भी कार्यरत हों तो उनके बीच एक नियमन प्राधिकरण का गठन। लेकिन लोकतंत्र में चूकि दबाव समूहों तथा विभिन्न लॉबीज के द्वारा अपने अपने दबाव के जरिये लोकतंात्रिक सरकारों से अपने पक्ष में उचित व अनुचित दोनो फैसले करवा लेने का शगल चला करता है, ऐसे में भारत  सहित किसी भी प्रतियोगी लोकतंत्र में चुनाव को लेकर एक लेवल प्लेयिंग की स्थिति नहीं बन पाती। मिसाल के तौर पर रेवड़ी की राजनीति में जो दल विपक्ष में है वह मतदाताओं को नहीं लुभा पाएगा क्योंकि उसके पास राजखजाना नहीं हैं जबकि सत्ताधारी दल को सत्ता में रहने का एडवांटेज मिल जाता है। दूसरा राजखजाने पर इसका भारी बोझ भी पड़ता है।


तीसरी बात जो गौरतलब है कि जिस तरह से व्यवसाय के वातावरण में किसी भी प्लेयर को एकाधिकारी की स्थिति प्राप्त ना हो उसके लिए एकाधिकारी निरोध कानून बना होता है और उनकी समस्त व्यावसायिक गतिविधियों की देखरेख के लिए एक एकाधिकार निरोध आयोग भी गठित होता है। अब सवाल है कि क्या इसी तर्ज पर भारतीय चुनावी लोकतंत्र में आइडेंटेटी -मनी -मस्ल-हेट स्पीचेज की पालीटिक्स के साथ पोपीलिज्म पालीटिक्स की भी रोकथाम हो उसके लिए हमारे पालीटिकल रेगुलेटर यानी चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप एक व्यापक दिशा निर्देश, मापदंड व कुल मिलाकर एक लक्ष्मण रेखा निर्धारित नहीं की जानी चाहिए । यदि ये हो तो इससे हमारा लोकतंत्र ज्यादा बेहतर पैमानों पर प्रतियोगी तो बनेगा ही साथ साथ भारत का लोकतंत्र सुशासन के अद्यतन पैमाने पर चलायमान बनेगा। बहरहाल अभी राज्य विधानसभा चुनाव के परिणामों के जरिये ये बातें भलीभांति निर्धारित हो गई कि एंटी इन्कंबेंसी को रेवड़ी कल्चर से  क ूंद बनाया जा सकता है। इस क्रम में अब देश के राजनीतिक पंडितों की नजर दिल्ली के आगामी फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनाव पर जाकर टिक गई है जहां आप पार्टी के  प्रमुख केजरीवाल ने रेवड़ी पर चुनावी चर्चा का अपना पंडाल अभी से सजाना शुरू कर दिया है।

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