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फिर से तीन कानूनों पर विवाद अपराध न्याय प्रणाली के पुनरलेखन और इनके तंत्र के पोषण से ज्यादा जरूरी सामाजिक सुधारों के जरिये आपराधिक प्रवृतियोंं का निर्मूलन

फिर से तीन कानूनों पर विवाद
अपराध न्याय प्रणाली के पुनरलेखन और इनके तंत्र के पोषण से ज्यादा जरूरी सामाजिक सुधारों के जरिये आपराधिक प्रवृतियोंं का निर्मूलन

  मनोहर मनोज

अभी 1 जुलाई 2023 से भारत की सार्वजनिक व्यवस्था में फिर से एक नया इतिहास लिखा गया ठीक वैसे ही जैसे सात साल पूर्व जीएसटी के जरिये एक नया इतिहास लिखा गया था।  भारत की तीन आपराधिक कानून संहिताओं  जिसमे 163 साल से चल रही भारतीय दंड संहिता आईपीसी 1861, अपराध प्रक्रिया संहिता 1974 और भारतीय साक्ष्य कानून 1872 के नाम व संस्कार दोनो बदल डाले गए। इन कानूनों का नया नाम अब क्रमश: भारतीय न्याय संहिता,2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 हो गया है। बताया जा रहा है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी साम्राज्य द्वारा नामकृत ये कानून त्रय आजाद भारत की न्यायिक भावनाओं का प्रतिनिधित्व नही कर रहे थे। इन संशोधित कानून संहिताओं के जरिये बताया जा रहा है कि अब हर न्यायिक सुनवाईयां और उसके फैसले निर्धारित समय में करने होंगे। दूसरा अपराध की जांच प्रक्रिया में ज्यादा से ज्यादा तकनीकों का प्रयोग होगा। अपराध के सबूतों के बतौर डिजिटल व इलेक्ट्रानिक तरीकों का चलन बढाया जाएगा।  नयी संहिता के तहत आपराधिक सेक्शनों की संख्या अब 511 से घटकर 358 हो गई है।  इस क्रम में संज्ञेय अपराधों की सूची में 21 नये अपराधों को जोड़ा गया है जिसमे साइबर अपराध, मौब लिंचिंग और नफरती हिंसा जैसे अपराध प्रमुख हैं।  गौरतलब है कि नयी रेजीम में करीब 6 मुख्य  अपराधों के लिए किसी कारावास की सजा देने के बजाए सामुदायिक सेवा किये जाने का दंड प्रावधानित है। इन संशोधनों के अंतर्गत जो सबसे बड़ा उलटफेर हुआ है वह है सभी  मुख्य   अपराधों के प्रचलित सेक्शन अब बदल गए हैं। जैसे कि अपहरण  का अपराध  भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 363 मे आता था वह अब भारतीय न्याय संहिता का सेक्शन 111 कहलाएगा। इसी तरह हत्या का प्रयास आइपीसी के सेक् शन 307 में था वह अब बीएनएस में सेक् शन 109(1) हो जाएगा , हत्या का अपराध 302 के बजाए अब 103 (1), छेडछाड़  354 के बजाए अब 77 ए , गैंगरेप आईपीसी के  376 ए से अब  बीएनएस का सेक्शन 70 , डाका अब 394 के बजाए 309, दंगा फैलाना सेक् शन 147 से बदलकर 191 (2) और अवैध समागम  का सेक्शन 144 अब भारतीय न्याय संहिता में सेक्शन 189 में परिवर्तित हो गया है। पुलिस में शिकयत दर्ज करने वाले को सहूलियत ये हुई है वह अपने व्हाट्सअप से और किसी भी पास के थाने में एफआईआर दर्ज कर सकता है। पांच दिन के बाद वह शिकायत सबंधित कार्यक्षेत्र में ट्रांसफर हो जायेगा। अपराध की गंभीरता के हिसाब से इनकी स्वीकृति की पुलिस हायरार्की भी नए कानून में तय की गयी है। झूठी शिकायत को हतोत्साहित करने के भी प्रावधान तय किये गए है।
यानी अब पुलिस, वकील और जज सभी को नये कानूनी संहिताओं की सभी शब्दावलियों से लेकर उनके कानूनी तकनीकी पहलुओं का पाठ नये सिरे से पढना व स्मरण करना होगा और उससे संबधित प्रशिक्षण भी लेने होंगे। दूसरी समस्या ये होगी  कि एक जुलाई 2024 से पूर्व के पंजीकृत सभी आपराधिक मामले पूरानी कानूनी संहिताओं के जरिये ही निपटाये जाएंगे जबकि एक जुलाई के बाद के पंजीकृत मामलों को नयी तकनीक  के मार्फत निपटाना होगा। इस क्रम में केन्द्र व राज्य  सरकारो की पुलिस महकमों द्वारा जिलेवार बैठके करने और डिजीटल उपकरणों मसलन स्मार्ट मोबाइल के जरिये अपराध के साक्ष्य जुटाने हेतू कवायदे शुरू होने की खबरे भी आ रही हैं। बताया जा रहा है कि नये कानूनी संहिताओं के अनुपालन के क्रम में देश में विशाल न्यायिक संरचना, फौरेंसिक लैबों, आडियो विजुअल सर्वरों की स्थापना ,कानून व्यवस्था व जांच की विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल, नये प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना जैसी तमाम चुनौतियों का आगमन हुआ है। जिस तरह से जीएसटी की रिजीम आने के बाद केन्द्र व राज्यों के कर प्रशासन को कई तरह की व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जो अभी तक जारी हैं, कमोबेश अपराध न्याय तंत्र को भी उसी तरीके से गुजरना पड़ेगा।
कहना होगा कि तीन नये आपराधिक संहिताओं के जरिये देश में सैद्धांतिक तौर पर सुधारों का एक नया जामा जरूर पहना दिया गया है ; पर उस जामे के भीतर देखें तो भारतीय अपराध न्यायिक व्यवस्था के कई सारे पोल छिपे हुए हैं। केन्द्रीय गृह मंत्री का अभी भी कहना है कि नये कानूनी संहिताओं के तहत भी अपराधी की पुलिस रिमांड अवधि 15 दिन बरकरार रखी गई है यानी पुलिस को कथित अपराधी को प्रताडि़त करने का लाइसेंस बदस्तुर मिलेगा। जाहिर है कि भारत की पुलिस व  न्यायिक व्यवस्था को लेकर जो असंख्य  सवाल जो दशकों से विराजमान हैं उनका निवारण मौजूदा नये कानूनी रिजीम से संभव होने की उममीदें सुनिश्चित होगी, ऐसा नहीं लगता। मिसाल के तौर पर पुलिस द्वारा लोगों की अज्ञानता, अनभिज्ञता और नादानी का फायदा उठाकर उन्हे जिस तरह डराया जाता है, प्रताडि़त किया जाता है , उन्हें गलत आपराधिक सेक् शन में अपराध दर्ज कर उनसे धन की वूसली की जाती है क्या  नये कानून रिजीम में इनसे निजात मिलेगी? क्या कई नये कानूनी रिजीम में  लाखों कैदी जो बिना सजा मुकर्रर के कारावास का जीवन जी रहे हैं, उनका मानवाधिकार सुनिश्चित  होगा।? क्या नये रिजीम में न्याय पाने के लिए जो बरसों बरसों का समय और लाखों करोड़ों की राशि खरचनी पड़ती है उससे राहत मिलेगी? नये कानूनी रिजीम में देश के सभी न्यायालयों में करीब 4 करोड़ मुकदमे जो लंबित हैं क्या उनके समयबद्ध निपटान  की आस जगेगी?क्या नये रिजीम में वकीलों की वाजिब फीस की दरें तय होंगी?
क्या नये कानूनी रिजीम में पुलिस जनता के सेवक के बतौर या सेवक छोडिए कम से कम मित्र के बतौर पेश आएगी? क्या पुलिस निर्दोष को बचाने और असल अपराधी को दबोचने का अपना चरित्र पेश करने के लिए बाध्य होगी? क्या नये कानूनी रिजीम में भी पुलिस की भूमिका केवल अपराधों की कथित रोकथाम ही रहेेगी या जनता की नित दिन की कई सेवाओं मसलन सत्यापन, पहचानीकरण, किसी भी समस्या को लेकर प्राथमिकी दर्जगी और तनाव झगड़ा भय व डर मुक्त सामाजिक  वातावरण बनाने में उनकी कोई भूमिका दिखायी देगी?भारत की मौजूदा पुलिस न्याय व्यवस्था और इसके कार्यशील तंत्र के चाल चेहरा चरित्र को देखते हुए ये चीजें नाउममीद ही दिखायी पड़ती है।
भारत हो या कोई भी देश सभी समाज में अपराधों की एक स्वयंमेव उत्पत्ति की गतिशीलता मौजूद होती है। इसमे कई अपराध अपराधी की अन्तर्जात प्रवृति व उसके परिवेश व संस्कार से भी प्रभावित होकर उत्पन्न होती हैं। ऐसे कई अपराधी हैं जो जेल जाने पर आत्मअवलोकन की मानसिकता में आते हैं तो दूसरी तरफ कई अपराधी हैं जो सजा के बावजूद जेल से लौट कर और बड़े दूर्दांत अपराधी बनते हैं। ऐसे में क्या सरकार व समाज का ये कर्तव्य नहीं बनता कि हर तरह के अपराधों के घटित होने की प्रवृति का ही जड मूल से नाश किया जाए बजाए कि इस प्रवृति को जीवित रहने दिया जाए और देश में पुलिस वकील जज और अपराधियों के मौजूदा भ्रष्ट तंत्र को निर्बाध तरीके से फलने फुलने दिया जाए जो एक तरह से खरबों का बेनामी उद्योग बन चुकी है। इसमे पुलिस अपराधी व कानूनविद सभी मालामाल होते हैं और  देश की सभी कचहरियों में इनका मोटा कारोबार चलता है। क्यों नहीं हम देश के सभी जेलों में बंद अपराधी और कानून का सामना कर रहे कैदियों के मानस परिवर्तन और सुधारों के सिलसिले को बढाने का भी अभियान चलायें।
बिहार में शराबबंदी का कानून बना दिया गया, पर नतीजा उल्टा निकला। एक तरह शराबी और बढ गए, बल्कि तस्करी वाली घटिया शराब पीकर शराबी ज्यादा मरने लगे। दूसरी तरफ इससे सरकार के राजस्व का श्रोत तो समाप्त हो गया पर वही राशि पुलिस की अवैध कमाई के रूप में परिवर्तित हो गई। यदि सरकार इस पहल के बदले शराबी व्यक्ति के मानस परिवर्तन का व्यापक अभियान व प्रोत्साहन का कार्यक्रम चलाती तो परिणाम ज्यादा स्थायी निकलता।
बहरहाल तीन नये कानूनी संहिताओं से ब्रिटिश गुलामी का टैग जरूर हट गया है पर न्यायिक सुधारों व परिवर्तन का एजेंडा अभी भी मुह बाये आने वाले वक्त का इंतजार कर रहा है।

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