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न्यायिक और पुलिस सुधारों का एजेंडा क्या हों ?

मनोहर मनोज. संयोजक , भारत परिवर्तन अभियान

सबसे पहले तो मै ये बता दूँ की मै कानूनी व न्यायिक मामलो का कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ। बल्कि देश के न्यायिक व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं और इनसे जुड़े पिछले सत्तर सालों के घटनाक्रम का एक आब्जर्वर होने के नाते मेरा यह पुरजोर मत है की हमें इस व्यस्था में न्यायालयों और विभिन्न कानूनी पचड़ों की जरूरत ना के बराबर पड़े तो वह स्थिति सबसे बेहतर है। पर इसके साथ यह भी कहना समीचीन होगा की यह परिस्थिति तभी संभव है जब हमारी समूची व्यस्था और सिस्टम के सभी स्टेक होल्डर एक फुल प्रूफ तरीके से स्थापित और संचालित दोनों हो रहे हों।
परन्तु चूंकि हमारी व्यस्था के सारे अंग फुल प्रूफ स्थिति में नहीं है ऐसे में हमें तो यही कहना पड़ेगा की इसके निदान और प्रतिकार के लिए एक सम्यक व समुचित न्यायिक व्यस्था की हमें सदा दरकार है। कम से कम हमें इस लोकतंत्र में इसके मूल मानकों मसलन , कानून का शासन, लोकतंत्र के विभिन्न अंगो में परस्पर नियंत्रण और संतुलन स्थापित करने, शासन के विभिन्न अंगो के बीच शक्ति पृथक्कीकरण सिद्धांत को लागू करने तथा विभिन्न तरह के मानवाधिकारों की रक्षा करने , इन सभी की प्रतिपूर्ति मौजूदा न्यायिक व्यस्था से ही संभव हो पाती है। परन्तु यदि हम देश की मौजूदा न्यायिक व्यस्था के सार्वजनीन परिस्थितियों में इसके विभिन्न पक्षों में यथोचित्त परिवर्तन की बात नहीं करेंगे तबतक हम देश के विभिन्न हलकों के लिए जरूरी मौलिक सुधारों के एजेंडों को आगे नहीं बढ़ा सकते। सबसे पहले तो हमें इस बात को भलीभांति जान लेना होगा की हमारे बहुतेरों सुधारों के एजेंडे ऐसे हैं जिसे न्यायिक तरीके से ही अमली जामा पहनाया जा सकता है। हमारे समक्ष ऐसे कई आसन्न राजनीतिक , आर्थिक , प्रशासनिक और सामाजिक सुधारों का रास्ता है जो सबसे पहले न्यायिक पगडंडियों के मार्फ़त गुजरता है। दूसरी बात की हमारे इस संसदीय लोकतंत्र में, जहाँ सभी तरह के विधायी कार्य को संवैधानिक रूप से अभिप्रमाणित तथा कार्यान्वित करना होता है, जहां इसे संविधान के अभिरक्षक की भी भूमिका निभानी पड़ती है। इन सभी भूमिकाओं में न्यायालयों के अस्तित्व का महत्व अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है।
हमारी न्यायपालिका के महत्व का दूसरा पहलू जो हमारे समक्ष उत्प्रकटित होता है, वह पहलू है गुड गवर्नेंस का। सैद्धांतिक रूप से न्यायपालिका विभिन्न संस्थाओं का एक ऐसा समूह पूंज है जो दो व्यक्तियों, दो संस्थाओं और संगठनों के बीच तथा व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच आपसी किसी भी तरह के विवाद और द्वंध का समाधान करना है। पर आम तौर पर देखा यह जाता है की सम्बंधित न्यायालयों में विवादों के समाधान में काफी विलम्ब लगता है , कई बार यह वक्त अन्तहीन होता है। हमारी इस त्रिस्तरीय न्यायिक तंत्र में सर्वोच्च न्यायालय से लेकर उच्च न्यायलय तक तथा उच्च न्यायालय से लेकर जिला न्यायालय तक तथा जिला न्यायलय से लेकर ग्राम न्यायलय तक करीब तीन से चार करोड़ विवाद और मुकदमे लंबित हैं। इन सभी मामले और विवादों में सभी तरह के आपराधिक मामलों का प्रतिशत दो तिहाई यानि 65 फीसदी के लगभग है जिसकी आपसी सुलह से सुलझाने की सम्भावना ना के बराबर होती है। । सबसे पहले तो न्यायालयो में मुकदमों की याचिका डालने से लेकर न्यायिक सुनवाई की प्रक्रिया बेहद लम्बी और थकाऊ होती है। इसमें सालों लग जाते हैं। कभी कभी तो इसमे कोर्ट फैसला आने तक पच्चीस वर्षों तक का समय लग जाता है।
ऐसे में अब सवाल ये है गुड गवर्नेंस के एजेंडे को लागू करने तथा लोकतंत्र को एक आदर्शपरक ढंग से संचालित करने वास्ते क्या हमारे शासन प्रशासन के तंत्र में न्यायपालिका की सचमुच जरूरत है या इसके बिना भी इसे प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि लोगो में इस बात की अवधारणा बड़ी तेजी से मजबूत होती जा रही है की हमें न्यायलय जाने से परहेज करना चाहिए और मुकदमों में पचड़े में पड़ने से ज्यादा से ज्यादा बचना चाहिए और इसकी बजाये आपसी सुलह और सहमति का मार्ग अपनाया जाये या फिर लोक अदालत जैसी संस्थाओं का प्रचलन बढ़ाया जाना चाहिये। लोग यहाँ तक भी सोचते हैं की विवादों का समाधान कार्यपालिका स्तर पर निपट जाये तो ज्यादा अच्छा। सवाल यह भी है की यदि हमारी कार्यपालिका जिसे हमने विभिन रैंक और फाइल के हिसाब से संस्थापित किया है, अगर यही अपने स्तर पर विभिन्न पक्षों की आपसी शिकायतों, विवादों और असहमति के विन्दुओं को सर्वमान्य ढंग से सतत और रूटीन स्तर पर निष्पादित करती रहे तो फिर हमारे अनेकानेक मामले कोर्ट की शरण जाने से बच जायेंगे।
विश्व बैंक का कहना है की किसी भी देश की अर्थव्यस्था में विकास दर की तीव्र बढ़ोत्तरी इस बात पर निर्भर करती है वहां दो गुटों के बीच किसी भी तरह के विवाद का त्वरित समाधान हो और इसके लिए जरूरी है देश में कानूनी न्याय की एक उम्दा बुनियादी संरचना उपलब्ध हो। दूसरी बात ये है की हमारे यहाँ देश में न्यायधीशों की प्रयाप्त संख्या में नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच बड़ी उहापोह की स्थिति मची हुई है। बताया जाता है की जजों की स्वीकृत पदों पर भी नियुक्तियां नहीं हों पा रही है। सरकार और न्यायपालिका के बीच मचे तकरार की मुख्य वजह जजों की नियुक्ति की 1993 से चली आ रही कॉलेजियम प्रणाली है। दोनों के बीच चला यह गतिरोध दरअसल संसद और सुप्रीम कोट के बीच तब शुरू हुआ , जब संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायधीश नियुक्ति आयोग यानि ,एनजेएसी को सुप्रीम कोर्ट ने मानने से मना कर दिया।
गौरतलब है की कॉलेजियम प्रणाली के तहत सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश की अध्यक्षता में वरिष्ठ जजों की कमेटी सुप्रीम कोर्ट और देश के 24 उच्च न्यायलयों के जजों का चयन करती है और केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय इन चयनित नामों की नियुक्ति को प्रक्रियागत स्वरुप जिसे एमओपी कहा जाता है ,प्रदान करता है। बताया जाता है की सुप्रीम कोर्ट द्वारा कॉलेजियम सिस्टम को लागू करने की हठ की वजह से सरकार द्वारा जजों की नियुक्ति प्रक्रिया जिसे एमओपी यानि मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसिड्यूर कहा जाता है, में देरी की जाती है। मौजूदा एनडीए सरकार द्वारा साल 2015 में 120 जजों की नियुक्ति को अंतिम रूप जरूर दिया गया। इसके बावजूद्द रिक्तियों के मुकाबले नियुक्तियां कम है। अब सवाल ये है की पहले ,एनजेएसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट को हठवादी रवैया नहीं अपनाना चाहिए था क्योंकि इससे संसद की सर्वोच्चता का अपमान हुआ। अब चूकि कॉलेजियम प्रणाली फिर से अमल में आ गई है और अब यदि संसद उस पर दोबारा संज्ञान नहीं ले रही है तो वैसे में नियुक्ति प्रक्रिया को सरकार द्वारा तीव्र स्वरुप दिए जाने में देश के न्यायिक व्यस्था की भलाई है।
उच्च न्यायालय –देश में प्रादेशिक स्तर पर उच्च न्यायालय तथा इसके मातहत विभिन्न ज़िलों में जिला न्यायालय स्थापित किये गए है। इन सभी स्तरों पर देश में 45000 जजों के स्वीकृत पद हैं जिन पर 25000 पदस्थापित हैं। विश्व बैंक के मुताबिक हालाँकि भारत के न्यायालय अपनी अक्षमता के लिए कुख्यात हैं परन्तु उनमे स्वतंत्र निर्णय प्रक्रिया का तत्व जरूर दिखाई पड़ता है। परन्तु इसके लिए न्यायिक व्यस्था का निरंतर चलायमान होना जरूरी है क्योंकि यह भ्रष्टाचार के निवारण के लिए एक बहुत बड़ा अस्त्र है। परन्तु विडंबना इस बात की है की यह न्यायिक व्यस्था ही भ्रष्टाचार से आकंठ डूबी हुई है। न्यायिक व्यस्था में मौजूद भ्रष्टाचार जजों को मिलने वाले घुस तक सीमित नहीं है। कोर्ट के कर्मचारियों को न्यायिक सुनवाई जल्दी और देरी दोनों किये जाने के लिए रिश्वत दिए जाते हैं। हमारे नागरिक ज्यादातर अपने अधिकारों को लेकर अनजान हैं और मुकदमों की विभिन्न कार्रवाइयों में वे अपने घुटने टेक देते हैं। न्यायालय ज्यादातर मामलो में त्वरित सुनवाई और फैसले देने में अक्षम हैं। जैसे की न्यायालयों में करीब तीन करोड़ केस पेंडिंग है। इसमें सुप्रीम कोर्ट में अकेले 65000 मामले लंबित हैं। देश के उच्च न्यायालयों में कुछ समय पूर्व तक 400 पद खाली थे । न्यायिक मामले में बजट आबंटन साकार घरेलू उत्पाद का महज 0. 2 फीसदी है। प्रति दस लाख आबादी पर जजों की संख्या केवल 10 है जो कम से कम 50 होना चाहिये। विवादों की बात करें तो सरकार अकेली सबसे बड़ी पार्टी है और विधि आयोग के मुताबिक न्यायालयों पर मुकदमों के भा री बोझ के लिए वह प्रमुख रूप से जिम्मेवार है जो चाहे तो वह इस बोझ को टाल सकती है या कम कर सकती है। आखिर ये बात क्यों कही जाती है की न्याय में देरी एक तरह से न्याय नहीं मिलने के बराबर है।
न्यायिक मामले का एक बड़ा मुद्दा यह भी है की देश की बड़ी प्रतिभाओं को यह अपनी ओर ज्यादा आकर्षित नहीं कर पा रहा है। 12 जनवरी ,2012 को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने खुद स्वीकार किया की आम लोगो का न्यायपालिका पर से विश्वास तेजी से गिरता जा रहा है। यह स्थिति देश के संविधान और लोकतंत्र की भलाई के लिए अच्छी बात नहीं है।
गौरतलब है की देश में लंबित मामलों को निपटाने के लिए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट, शाम और सुबह की कोर्ट स्थापित जरूर किये गए पर इनकी सफलता मिश्रित किस्म की रही। कई जगह चलंत न्यायालय भी स्थापित किये गए। टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017 में देश के जिला न्यायालयों में करीब 2. 3 करोड़ मामले लंबित हैं जिनमे करीब डेढ़ करोड़ मामले आपराधिक किस्म के हैं और करीब 72 लाख मामले दीवानी है। नेशनल जुडिसियल डाटा ग्रिड द्वारा संकलित आकड़ों के मुताबिक यूपी में सर्वाधिक मामले लंबित हैं। इसके बाद महाराष्ट्र का स्थान आता है। करीब एक करोड़ यानी 43 फीसदी लंबित मामले दो साल की अवधि के है।
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक और रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार द्वारा पिछले कुछ वर्षों में देश के करीब 17000 कोर्ट को डिजिटल बनाने की लिये करीब 1000 करोड़ रुपये खर्च किये, पर दुर्भाग्य से देश के 24 हाई कोर्ट्स में से केवल 4 ने इसे अपनाया। कोर्ट में इ फाइलिंग ऑफ़ केसेज केवल दिल्ली , हरियाणा पंजाब , बॉम्बे और मध्य प्रदेश के उच्च न्यायलय में हो रहा है। इस प्रणाली में याचिकाकर्ता अपने केस का अपडेट्स ऑनलाइन प्राप्त कर लेता है। 2010 में शुरू इलेक्ट्रानिक कोर्ट परियोजना के तहत देश भर में अब तक करीब 17000 जिला व अधी नष्ठ न्यायालयों के कम्प्युटरीकरण का कार्य सम्पन्न जरूर हो चुका है। परन्तु इन जिला न्यायालयों में स्वीकृत 22000 जजों में से करीब 4000 पद अभी भी खाली पड़े हैं। जाहिर है इससे न्यायिक फैसलों के निष्पादन में देरी होगी।
सर्वोच्च न्यायलय का कहना है की प्रति दस लाख व्यक्ति पर देश में करीब 16 जज है, जबकि इसके मुकाबले इतनी ही आबादी के लिए हमारे पास 42 पुलिस इंस्पेक्टर रैंक के अधिकारी मौजूद होते हैं। कुल मिलाकर हमारे देश में 91000 सिविल सर्वेन्ट और करीब 51000 पुलिस अधिकारी है जबकि जजों की संख्या केवल 22000 है। सुप्रीम कोर्ट के शोध व नियोजन सेंटर के मुताबिक अगले दस सालो में देश के जिला व अधी नष्ठ न्यायालयों में मुकदमों के निष्पादन के लिए कार्यरत जजों की संख्या को करीब दोगुना बढ़ाना पड़ेगा। और अगले 2040 तक इस संख्या को 80000 तक लाना होगा तभी देश में लंबित सभी मुकदमो का त्वरित समाधान संभव होगा।

न्यायिक सुधारों के मुद्दे
1. पहले हमें तो यह तय करना पड़ेगा की आधुनिक शासन व्यस्था में न्यायपालिका की वास्तव में जरूरत है क्या ? अगर हमारे सिस्टम की यह जरूरत है तो फिर हमें मौजूदा न्यायिक व्यस्था में आमूल चूल परिवर्तन लाने की जरूरत है जिसके तहत न्याय को जनता और सिस्टम की मौलिक आवश्यकता मानकर इस लक्ष्य को हासिल किया जाये।
2. न्यायपालिका को देश के लोकतंत्र में कानून का शासन, शक्ति संतुलन के सिद्धांत तथा संविधानवाद की रक्षा के लिए एक अपरिहार्य जरूरत मानकर चला जाये।
3. देश में चूकि त्वरित न्याय, सस्ता न्याय और गुणवत्ता परक न्याय उपलब्ध नहीं है, इस तथ्य को स्वीकार कर इस लक्ष्य के लिए सभी जरूरी तत्वों को पुनर्स्थापित करने के प्रयास हों।
4. न्यायपालिका में ऊपर से लेकर नीचे तक की संरचना का पुनर्निर्धारण हो। कानून बनाने से लेकर इसके क्रियान्यवन तक की प्रक्रिया को बेहद सरल , पारदर्शी तथा आसानी से समझने लायक बनाने की दिशा में काम हो।
5. पुलिस , वकील और न्यायाधीश हमारी न्याय व्यस्था की ये तीन मुख्य कड़ी हैं। पर हमें यह निर्धारित करना होगा की ये तीनों पेशेवर क्या ईमानदार, विनम्र और मानवीय रूप से संवेदनशील हैं। इसी बात का दूसरा पहलू ये है की इन पेशेवरों को समुचित पारिश्रमिक सुनिश्चित की गयी है या नहीं।
6. हम यदि भारत में किसी परियोजना के लागत और निर्माण अवधि के लम्बे खींच जा ने की बात करते हैं ऐसे में देश में न्यायिक सुनवाई और इनके फैसले की समय अवधी बेहद लम्बी होने को समाप्त करने को लेकर एक राष्ट्रीय संकल्पदृष्टि प्रदर्शित की जाये। हम नए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की बात करते हैं क्यों ना देश में हर सामान्य कोर्ट को ही फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में बदला जाये
7. अगर हम देश में गुड गवर्नेंस और इ गवर्नेंस की बात करते हैं तो क्यों न हम गुड जुडिसियरी की भी बात करें। इसके लिए हम आज भी ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत के अनुसार गढ़ी गयी भारतीय दंड संहिता और आपराधिक दंड संहिता को चलायमान रखे हुए हैं।
8. हम देश में जजों की वास्तविक जरूरत को ध्यान में रखकर उनकी नियुक्ति के मार्ग में असली वजहों का खुलासा क्यों नहीं करते।
9. देश में निचले स्तर पर विराजमान न्यायिक व्यस्था को लेकर एक स्थिति पत्र और समस्या पत्र जारी हो। देश में निम्न स्तर पर स्थित न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नकेल डालने का एक राष्ट्रीय अभियान चले। कोर्ट की अवमानना के कानून पर पुनर्विचार हो ।
11. देश मी लंबित सभी मुकदमों के व्यापक निष्पदान के लिए देश भर में लोकअदालतों के गठन और सञ्चालन के लिए एक राष्ट्रीय अभियान की जरूरत।
12 देश में विभिन्न जेलों के रखरखाव और उनके सुधारों की स्थिति की पड़ताल बेहद जरूरी। कैदियों के आचरण सुधार तथा उनके मनोवैज्ञानिक उपचारो को बढ़ावा देने की जरूरत । हमें यह भी जानने की जरूरत है की बिना सजायाफ्ता कैदियों की जेलों में संख्या क्यों बढ़ती जा रही है। यह तो न्याय के मूल सिद्धांत के प्रतिकूल है।
13 एक बहुत बड़ा सवाल ये भी है की न्यायालयों द्वारा दी जाने वाली अस्सी फीसदी फांसी की सजा गरीब , पिछड़े , दलित और अल्पसंखयकों को ही क्यों और अरबों के घोटालेबाज और अनगिनत लोगों के जान किसी न किसी तरीके से लेने वाले के लिए सिर्फ पांच सात साल की सजा काफी। जबकि महज हज़ार लाख की लालच में अपराध के वारदात करने वाले मौत की सजा पा जाते हैं।
15 . कोर्ट की सुनवाई अभी भी सबूत और गवाहों पर केंद्रित है, जबकि गवाह और सबूत ज्यादातर मामलों में मैनेज किये जाते है। क्यों नहीं हम अपराध की न्यायिक सुनवाई को ज्यादा से ज्यादा टेक्नोलॉजी से सुसज्जित करें जिसमे ज्यादा से ज्यादा पॉलीग्राफ, डीएनए और बिसरा जाँच का इस्तेमाल हो।
16. हम क्यों नहीं दंडाधिकारियों को उनके अपराध के लिए और ज्यादा दंड देने का प्रावधान रखें जिससे रक्षक भक्षक की भूमिका में ना आने पाए.
20 देश में सभी तरह की लीगल सेवाओं का शुल्क निर्धारित हों।
21 विधि आयोग की सिफारिशों की स्थिति क्या है और कानून निर्माताओं द्वारा इसका कितना अनुपालन होता है इसकी पूरी छानबीन हो।
22 देश के सभी विधि पेशवरों के लिए बार कौंसिल के सहयोग से एक आचार और पेशेवर संहिता का निर्धारण हो

जरूरत पुलिस सुधारों की


देश के अधिकतर लोगों के लिए आज भी यह एक बड़ा प्रश्न है की क्यों हर सत्तासीन दल और सरकार के लिए पुलिस बेहद प्यारी होती है और हर विपक्षी दल और आंदोलनकारी लोगों के लिये पुलिस संभवत: उनकी सबसे बड़ी दुश्मन। आखिर ऐसा क्यों है ? जबकि हकीकत ये है की वही विपक्षी दल जब सत्ता में आते है तो वही उनकी दुश्मन पुलिस उनकी प्यारी हो जाती है और विपक्ष के लोग सत्ता में आने पर पुलिस के सारे पुराने दुष्कर्म भूल जाते है। इन सभी बातों को देखकर तो यही लगता है की पुलिस संस्था केवल और केवल सत्ता का चरित्र जीती है चाहे वह ब्रिटिश साम्राज्य की सत्ता की पुलिस रही हो या स्वाधीनता उपरांत देश के लोकतान्त्रिक सत्ता की ? इसी तर्ज़ पर हम देश के सेना का भी उदाहरण लें। वह सेना जो किसी भी संप्रभु देश का एक सर्वाधिक जरूरी अंग होती है, उस पर जब हम अपनी नज़र दौड़ाते है तो यही लगता है कोई भी सिविल सरकार या लोकतान्त्रिक सरकार उनके कई कदम से सशंकित दिखती है। प्राथमिक रूप से हम अपनी सेना संगठन को जब देखते है तो वह एक बिलकुल अनुशासित जवानों तथा देशभक्त व जन भक्त सैन्याधिकारियों का जत्था दिखती है जिनके बोलचाल, हावभाव और कार्य करने की शैली उसी सरकार के पुलिस संगठन से बिलकुल उलटी दिखाई देती है। ऐसे में अब सवाल ये है की हमारी पुलिस संगठन क्यों उस सैन्य संगठन के उलट अक्खड़, बदमिजाज, भ्रष्ट, असंवेदनशील, अमानवीय , अनुशासनहीन, मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाली , निर्दोषों को फंसाने वाली संस्था के रूप में ढल चुकी है। देश में पुलिस बर्बरता और जुल्म पर हमारे पब्लिक डोमेन में इतनी सारी चर्चा होने के बावजूद हमारी पुलिस की रीति नीति में कोई बुनियादी परिवर्तन क्यों नहीं दृष्टिगोचर होता। यह एक ऐसा सवाल है जिसे देश का हर नागरिक सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों से सवाल पूछना चाहते है।
ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत के दौरान तो पुलिस का इस्तेमाल लोगो को तंग तबाह कर विद्रोह की किसी भी सम्भावना को समाप्त करने के लिए किया जाता था , क्या आज की लोकतान्त्रिक हुकूमते भी पुलिस को अपने विरोधियों को तंग करने के औज़ार के रूप में प्रयोग करना चाहती हैं। शायद यही वजह है की देश में 150 साल पुरानी ब्रिटिश काल की अपराध दंड संहिता यानी आईपीसी और सीआरपीसी आज भी चल रही है बल्कि यह तो बहुत बड़ी गहराई तक पैठी हुई है और हमारे पब्लिक डोमेन में सरकार और पुलिस के जनहितैषी होने लगातार मंत्रोच्चार के बावजूद्द यह बदस्तूर बनी हुई है। अब सवाल ये है की इस स्वाधीन और लोकतान्त्रिक भारत में भी हमारे नीति निर्माता और सत्ता नियामक इस पुलिस संस्था के पुरे ढांचे और तंत्र को उसी स्वरुप में क्यों रखे हुए हैं जो वह ब्रिटिश काल में थी। क्यों वह भारतीय दंड संहिता और अपराध संहिता को थोड़े बहुत संशोधन के अलावा अभी भी जारी रखे हुए है। इसे आगे भी बदले जाने की कोई सुगबुगाहट नहीं दिखाई देती। अत: अब सवाल ये है की जब इस लोकतंत्र में अनेकानेक बदलावों की बात की जाती है परन्तु पुलिस सुधारों को लेकर कोई गंभीरता क्यों नहीं दिखाई देती। कभी कभी हम देखते है की पुलिस बर्बरता की कुछेक घटनाओं को लेकर सरकार पर इलज़ाम लगते है। इस पर हम कुछेक बार पुलिस अधिकारियो के ट्रांसफर या सस्पेंशन की भी खबरें सुनते है। कभी कभार औपचारिकतावश इनपर न्यायिक जाँच आयोग बिठा दिया जाता है। पर कुल मिलाकर पिछले सत्तर साल में पुलिस के चाल , चेहरा और चरित्र में कोई बहुत बुनियादी फर्क नज़र नहीं आया। वही पब्लिक द्वारा अपनी सेना और पैरामिलिटरी फॉर्स की बहादुरी, देशभक्ति , बलिदान और बड़े दिल वाले प्रवृति की हमेशा दाद दी जाती है, परन्तु वही पब्लिक पुलिस के बारे में कुछ अपवाद को छोड़ दें तो वैसा नज़रिया नहीं बना पाती। हां कुछ लोग पुलिस का सम्मान और क़द्र जरूर कर देते है परन्तु पुलिस से प्रभावित ना होकर बल्कि उनके भय और आतंक की वजह से। अन्यथा पुलिस से से उनकी हमेशा नाउम्मीदी हीं बंधी होती है।
अब सवाल यह है की देश की पुलिस का आखिर यह स्वरुप अभी तक क्यों बना हुआ है। क्या पुलिस बल संगठन इसके लिए जिम्मेवार है। इस सवाल का जबाब ये है इसके लिये पुलिस बल संगठन स्वयं कत्तई जिम्मेवार नहीं है। इसके लिए पुलिस के पोलिटिकल मास्टर जिम्मेदार हैं। पुलिस की यदि कार्य संरचना व संस्कृति बदल दी जाए तो हमारी पुलिस के कार्य का तौर तरीका भी बदल जायेगा। पर लोकतान्त्रिक रिजीम में भी सत्ता नशीन लोग इस बदलाव के लिए तैयार नहीं। नतीजा आज तक देश व्यापक पुलिस सुधारों का एजेंडा पेश नहीं हो सका। गौरतलब है की मीडिया में भी पुलिस ज्यादतियों की बड़े अनुपात में कवरेज की जाती है पर इसके बावजूद भी नीति निर्माताओं का ध्यान इस पर गंभीरता से नहीं खींच पाता। पुलिस के कई विशेषज्ञों का मानना है की राजनीतिज्ञ पुलिस को अपनी सुविधा के हिसाब से उपयोग करना चाहते है। हमारे समक्ष ऐसे कई बड़े पुलिस अधिकारी हुए हैं जिन्होंने अपनी नायाब भूमिका प्रदर्शित की हैं और समाज के व्यापक हितों को तरजीह दी है। परन्तु राजनीतिज्ञों को यह बात कई बार नागवार लगता है। उन्हें पुलिस से ज्यादा ख़ुशी तब होती है जब वह उनके राजनितिक विरोधियों का सफाया करने में मददगार साबित होती है। इन्हे पुलिस संगठन से ज्यादा ख़ुशी तब प्राप्त होती है जब ये इनकी व्यक्तिगत सुरक्षा को उच्च प्राथमिकता देती है। इन्हे पुलिस तब अच्छी लगती है जब वह इनके चुनाव जितवाने में मदद करती है।
हमें मालूम है की पुलिस मुख्य रूप से राज्य सरकारों का गवर्निंग विषय है। हर राज्य पुलिस के कार्य का अपना चरित्र और संस्कृति विकसित हुआ है। कुछ राज्य सरकारें अपने यहाँ पुलिस रिफार्म के कुछ कदम लेकर भी आयी हैं।कई राज्यों ने पुलिस को बेहतर सुरक्षा यंत्रो और तकनीकों से सुसज्जित भी किया है। कुछ जगह पुलिस द्वारा लोक जिम्मेवारी का बेहतर निर्वाह भी देखता है, खासकर देश के दक्षिणी राज्यों में। वहां पुलिस पब्लिक प्लेस की देखरेख करते हुए ऐसे दिखती है मानो वह अपने घर की कोई रखवाली कर रही हो। . पर देश के उत्तरी राज्यों की बात करें तो उनके काम का चरित्र मध्यकालीन सामंती चरित्र सरीखा दीखता है जो सबसे पहली रेहड़ी पटरी वालों से अवैध हफ्ता वसूली के रूप में दिखता है।
हमारी समझ में चाल यानी व्यवहार में बदलाव किसी भी बेहतर पेशेवर पुलिस की सबसे पहली जरूरत है। अपराध नियंत्रण, सत्यापन सेवाएं , पहचान सेवाएं, सुरक्षा, कानून व्यस्था अनुपालन जैसे पुलिसिंग के ऐसे क्षेत्र हैं जिसके लिए पुलिस की भूमिका एकदम साफ तौर पर परिभाषित होनी चाहिए। अपराध न्याय विज्ञानं की मौजूदा स्थिति पुलिस की भूमिका को ज्यादा बेहतर स्वरुप में देखना चाहती है। अभी तक पुलिस द्वारा अपराध सुचना दर्ज़ करने से लेकर, अभियोग पत्र बनाने से लेकर , अनुसन्धान करने से लेकर, ख़ुफ़िया इस्तेमाल करने में उनका जो रोल होता है वह बेहद अतार्किक और फ़िज़ूल का लगता है। दोषी को पकड़ने के बजाये निर्दोष को फंसाने का ज्यादा लगता है। सुरक्षा के बजाये भयभीत करने वाला ज्यादा लगता है। जिस तरह से कथित कानून तोड़ने वाले पुलिस द्वारा पकड़े जाते हैं और जिस प्रक्रिया के मार्फ़त उन्हें पुलिस कस्टडी में और फिर बाद में अभियोग बनाकर कोर्ट में पेश किया जाता है, उसमे सटीकता और सच्चाई का कई बार लोप दीखता है। इसमें न्याय और तथ्य जानने के बजाये पुलिस का मनमौजीपन, अकड़ और बर्बरता ज्यादा दिखता है जो कई बार हमारे मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है। पुलिस द्वारा बनाये गए अधिकतर चार्जशीट झूठी तथा झूठी कानून धाराओं के इस्तेमाल से भरी होती है।
इकॉनमी इंडिया पत्रिका के एक अंक में एक सीनियर आईपीएस अधिकारी ने पुलिस सुधारो पर लिखे अपने लेख में कहा की जब हम देश की आज़ादी के 70 सालो के दौरान पुलिस की समूची क्रियाकलापों पर एक सरसरी निगाह डालते हैं तो पता चलता है की पुलिस भारत में वीआईपी की सुरक्षा में ही मुख्य रूप से तल्लीन रही। इसने खोया ज्यादा और पाया काम है। वह कहते है की पुलिस ब्रिटिश काल में ज़ुल्म किया करती थी और आज भी कर रही है। पर इसकी विश्वासनीयता में भारी गिरावट आयी है। विडम्बना ये है की इस दौरान देश के मॉडल पुलिस एक्ट में गंभीर बदलाव लाने की पहल कभी नहीं की गयी। हमें अपने स्वाधीन देश की जन इच्छाओं और जरूरतों के मुताबिक तथा देश में वास्तविक सुसाशन लाने के लिए पुलिस अधिनियम में बदलाव लाने की जरूरत है। सवाल ये है की यही पुलिस इमर्जेन्सी के समय बेहद चाक चौकस हुआ करती थी पर बाद में यही पुलिस गैरजिम्मेदार और लेटलतीफ कैसे हो गयी। हकीकत ये है की पुलिस का एक संगठन के रूप में सदुपयोग और दुरूपयोग दोनों किया गया। पुलिस का आधुनिकीकरण भी आधे अधूरे मन से किया गया, कही कंप्यूटर लग गए पर उनका मेंटेनेंस ठीक नहीं था। कही इन्हे प्रशिक्षण दिया गया दिया गया पर उसका सही फॉलो अप नहीं हुआ। राज्यों में पुलिस महानिदेशक के पद ने तो पुलिस का राजनीतिकीकरण करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है। पुलिस कई जगह राजनीतिज्ञों, बड़े अफसरों और अपराधियों के नापाक गठबंधन का मोहरा कर रहती चली आई है।
पुलिस सुधार के एजेंडे
1. जनता की किसी भी शिकायत और प्रथिमिकी को किसी भी पुलिस थाना और चौकी में पांच मिनट के भीतर दर्जगी अनिवार्य करना।
2. पुलिस संस्था में शिष्ट व्यवहार और आचार को प्राथिमिकता में सुनिश्चित करना। इनके द्वारा गाली गलौज की भाषा और पीड़ित के प्रति किसी तरह की असंवेदनशीलता को पूर्ण रूप से निषिद्ध ठहराना
3. पुलिस की समूची रीति नीति को इस टैग से बाहर करना की वह भय व्याप्त करने वाली तथा वैध गुंडई करने वाली संस्था है बल्कि बजाये उस पर यह टैग लगे की वह सेवा प्रदान करने वाली तथा पीड़ित के प्रति बड़े दिल प्रदर्शित करने वाली संस्था है
4. पुलिस की सभी तरह की भूमिकाओ को पुरे तौर पर परिभाषित करना जरूरी। अलग अलग सेवाओं के लिए अलग अलग पुलिस बल का गठन और उसके मुताबिल प्रशिक्षण और ओरिएंटेशन कोर्स जरूरी । मसलन वीआईपी सुरक्षा के लिए पुलिस की अलग विंग होनी चाहिए। आवशयक सत्यापन सेवाओं के त्वरित निष्पादन के लिए अलग, आतंकवाद रोकने के लिए, घरेलू हिंसा रोकने , बड़े सरकारी संपत्तियों की सुरक्षा के लिए, दंगे रोकने के लिये , यातायात सञ्चालन के लिए , यातायात कानून उल्लंघन के लिए अलग अलग पुलिस विंग का गठन होना चाहिए। ट्रैफिक पुलिस को चालान बनाने से मुक्त करना चाहिए। रेहड़ी पटरी वाले से किसी तरह की हफ्ता वसूली को बिलकुल निषिध ठहरना
5. पुलिस बल के देशवयापी प्रशिक्षण की योजना जिसमे इन्हे हथियार व अन्य सुरक्षा उपकरण के इस्तेमाल के प्रशिक्षण के अलावा उनके व्यवहार , बोलचाल तथा इंटेलिजेंस का पुलिसिंग में ज्यादा इस्तेमाल को उच्च प्राथमिकता

6. पुलिस संगठन और उनकी कार्य संस्कृति में हर तरह के भ्रष्टाचार की उपस्थिति का खात्मा। पुलिस बल की भर्ती, पोस्टिंग और ट्रांसफर में व्याप्त भ्रष्टाचार को जड़ मूल से समाप्त करना

7. पुलिस संगठन और उनकी कार्य संस्कृति में तरक्की यानी प्रमोशन और इनाम का प्रचलन ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना इनके मनोबल को बढ़ाने के लिए बहुत जरूरी है। इसे उनके मृदु व्यहार, उनकी दिलेरी , उनकी बहादुरी और उनकी ईमानदारी से जोड़ा जा ना चाहिए

8. किसी प्रदर्शन या मार्च को रोकने के दौरान पुलिस के आगोश में आ चुके प्रदर्शनकारी पर पुलिस द्वारा ताबरतोड़ लाठी चलाये जाने पर कानूनी रोक लगनी चाहिए। फेक एनकाउंटर की स्थिति में फांसी की सजा का प्रावधान होना चाहिए
9. हमारे यहाँ पुलिस सुधारों की जब बात होती है तब यह कहा जाता है की उनकी संख्या देश की आबादी के अनुपात में बेहद कम है। जबकि हकीकत यह है कई सभाओं व प्रदर्शन को रोकने के दौरान लोगो से ज्यादा संख्या वहां तैनात पुलिस बल की होती है। ट्रैफिक के दौरान चालान काटने के लिए चार चार सिपाही खड़े मिलेंगे ,पर बड़े से बड़े चौराहे पर ट्रैफिक के लिए के लिए मुश्किल से एक सिपाही मिलेगा वह भी कभी कभी और विशेष रूप से ऑफिस जाने छूटने के दौरान। उसकी दिलचस्पी चालान काटने में ज्यादा और असली ड्यूटी करने में कम होती है।

10 किसी वारदात या मामले पर पुलिस द्वारा किसी निर्दोष को फसा कर गलत कानूनी धारा लगाने , उसे पीटने , उसे लॉक अप में बंद करने, उसके अनुसन्धान में कई तरह की साजिश करने पर कड़ी कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए।

11. पुलिस संगठन में उनके विभिन्न रैंक और ओहदे में मानसिक प्रताड़ना आम बात होती है। बड़े अधिकारियों द्वारा अपने कनिष्ठ अधिकारियों को बेवजह परेशान किया जाता है और उन्हें शंटिंग में डाल दिया जाता है। पुलिस जवानो को छुट्टियां देने में बड़े अधिकारी दुर्व्यहार करते है। कई बार पुलिस जवान बेहद तनाव का सामना करते है। हर पुलिस जवान के लिए काम की बेहतर परिस्थितियां प्राप्त करना उनके बेहतर प्रदर्शन के लिए बहुत जरूरी है। इन स्थितियों के अभाव में कई बार पुलिस अधिकारी पर तनाव ग्रसित जवान गोली बारी करने पर मजबूर हो जाते है, जिस पर प्रभावी रोक लगाई जानी जरूरी है।

 

 

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