खेती क्या है, पानी और मिट्टी तथा मौसम का ही तो मिश्रित खेल है खेती की तबाही जरूरत मुकम्मल नीति की
मनोहर मनोज
हमारा हमेशा से यह मानना रहा है कि पानी पर खरचा जाने वाला पैसा पानी में चला जाता है और मिट्टी पर खर्च होने वाला पैसा मटियामेट हो जाता है। हमारे देश में भ्रष्टाचार का इतिहास इस बात का गवाह है कि देश में वृहत स्तर पर शुरू की गयी विभिन्न बड़ी सिचाई परियोजनाओं से ही भ्रष्टचार की भी मुख्य रूप से शुरूआत हुई, जिन्हें देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कभी विकास के मंदिर की संज्ञा दी थी। मिट्टी जनित होने वाले तमाम कार्य मसलन मिट्टी की खुदाई, भराई और इससे बनने वाले तमाम सड़क व बांध जैसे कार्य अंतत: मिट़्टी की ही भेंट चढ़ जाते हैं। पानी और मिट्टी जनित होने वाले कामों का परिमापन करना मुश्किल होता है साथ ही इसकी ऑडिट करना भी। यही वजह है कि इनसे संबंधित कार्यों के ठेकेदार ज्यादा खुश होते हैं क्योंकि इसके लिये आबंटित राशि में से उन्हें बचत ज्यादा होती है। एक समय ऐसा था जब केन्द्र और राज्यों में मंत्रिमंडल का गठन होता था तो उसमे सबसे ज्यादा मारामारी सिचाई मंत्रालय पाने को लेकर होती थी। जाहिर है इसकी वजह इस मंत्रालय के बजट का बड़ा आकार और इसमे भ्रष्टाचार करने का सुरक्षित तरीका दोनो मौजूद होता था।
पानी और मिट्टी से जनित इन मुद्दों को उठाने का मेरा मकसद देश में खेती और उसके मौजूदा संकट से है। खेती क्या है, पानी और मिट्टी तथा मौसम का ही तो मिश्रित खेल है। कहना न होगा हमारी ख्ेाती और उससे जुड़ा समूचा समाज तंत्र और अर्थतंत्र बारहोमासी संकटों से जूझ रहा है। कभी हमे सूखे का सामना करना पड़ता है, तो कभी बाढ़ का। कभी ओले का तो कभी चक्रवाती बारिश का। कभी तूफान तो कभी पाले का वगैरह वगैरह। परंतु मूल प्रश्र ये है कि पिछले सत्तर सालों से हमने तमाम छोटी बड़ी सिचाई व जल प्रबंधन की योजनाओं पर अरबों की राशि खरचते रहे, परंतु बमुश्किल देश की एक तिहाई कृषि जनित भूमि को सिचाई व जल नेटवर्क के दायरे में ला पाये। शेष दो तिहाई हिस्सा भगवान भरोसे है बल्कि हमारी सिंचित नेटवर्क वाली खेती भी अंतत: बारिश पर ही निर्भर करती है। वजह ये है कि बारिश के पानी का कोई विकल्प नहीं। वास्तव में कृत्रिम सिचाई की व्यवस्था भी हमारे खेती की समस्याओं का संपूर्ण समाधान नहीं।
वर्तमान में देश के करीब नौ राज्य जिसमे महाराष्ट्र के विदर्भ मराठवाड़ा, कर्नाटक, सौराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र और छत्तीगढ भारी सूखे का सामना कर रहे हैं। मराठवाड़ा के लातूर के बहुत बड़े इलाके में तो पीने के पानी तक के लाले पड़ गए हैं। ये सभी राज्य देश के बेहद शुष्क प्रक्षेत्र माने जाते हंै। इन इलाकों में उपलब्ध सभी जल स्रोतों की उपलब्धता और उसका संपूर्ण प्रबंधन हमारे लिये बेहद महत्वपूर्ण है। इन इलाकों में पानी की आपूर्ति और मांग के बीच संतुलन लाने की जो संभव कोशिशें की जा सकती है उसे तीन भागों में बांटा जा सकता है।
इस समस्या को लेकर पहली कोशिश इसके दीर्घकालीन समाधान को लेकर बनती है। यह समाधान है राष्ट्रीय नदी लिंक परियोजना।
दूसरा है मध्यम अवधि समाधान परियोजना जिसके तहत सभी शुष्क प्रक्षेत्र इलाकों के आसपास जलाशयों में जल संभरण तकनीकों के मार्फत जल की बेहतर उपलब्धता बहाल करना। और तीसरा है जल संकटों का तात्कालिक समाधान। इसके तहत संकटग्रस्त इलाके में वैगनों और टंैकरों के माध्यम से जलापूर्ति खासकर पेय जल की आपूर्ति सुनिश्चित करना प्रमुख है।
जल प्रबंधन के दीर्घकालीन उपायों की बात करें तो एनडीए-1 के कार्यकाल में पहली बार राष्ट्रीय नदी लिंक परियोजना का विचार लाया गया। करीब पांच लाख करोड़ की लागत पर इस परियोजना की रूपरेखा भी तैयार की गयी थी पर दूर्भाग्य से परवर्ती यूपीए के कार्यकाल में इस परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। मध्यम अवधि समाधान परियोजना की यदि बात करें तो केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों की तरफ से इस पर कई परियोजनाएं चलायी जा रही है जो जल संचयन और संभरण परियोजना के रूप में जानी जाती है। इस कार्य के लिये कुछ राज्य में लघु सिचाई के लिए अलग से मंत्रालय भी गठित किया गया है। पर हकीकत ये हे कि वाटर हारवेस्ंिटग की कुछ परियोजनाओं को छोड़कर ये योजना शुष्क इलाकों में पानी का भू जल स्तर बढ़ाने में कामयाब नहीं हो पायी हैं। करोड़ों अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद जल संग्रहण का स्तर एक सीमा से ज्यादा बढ़ृ नहंी पाया है। नतीजतन बारिश के अभाव व सूखे की स्थिति में लोगों को राहत देने के मामले में यह परियोजना ज्यादा सफल नहीं हो पायी। ऐसा नहीं हो पाने की वजह मेरी नजर में ये है कि प्रकृति पर हमारा बश ज्यादा नहीं चल सकता। दूसरा जल संभरण की कोई सटीक तकनीक का अभी तक हम इजाद नहीं कर पाये है। जल संभरण पर कुछ एनजीओ और जल कार्यकर्ताओं द्वारा केवल बातें ही की जाती है इसक ो बढ़ाने का उनके पास क ोई ठोस तरीका नहीं है। हैं। इन परिस्थितियों में हमारे पास केवल एक ही बड़ा विकल्प बचता है, वह ये हेै कि देश में राष्ट्रीय नदी ग्रिड योजना की हम पुनरशुरूआत करें। परंतु यह योजना तुरंत और आनन फानन में नहीं शुरू की जा सकती। हमे इस बात को समझना होगा कि हमारे देश का हर हिस्सा शुष्क नहीं है। देश में कुछ इलाके ऐसे हैं जहां जल संपदा की प्रचूरता है। बिहार, असम और उत्तरांचल जैसे राज्यों में विशाल जल राशि उपलब्ध है जो बारिश के मौसम में बाढ़ और अतिवृष्टि के कहर के रूप में सामने आती है। जम्मू व कश्मीर, हिमाचल वगैरह में हिमनदों के अलावा पहाड़ों पर विशाल मात्रा में बर्फ उपलब्ध हैं। अगर ये सभी जल संसाधन देश के शुष्क इलाकों से जोड़कर उन्हें पहुंचाया जा सके तो हमे इन इलाकों में पानी की तंगी का कभी सामना नहीं करना पड़ेगा।
हमारे देश में विगत में हुए जल प्रबंधन के कामों में पैसे की भयानक बर्बादी हुई चाहे वह नदी पर बंाध बनाने के रूप में हो, छोटी बड़ी नहरों के जाल बिछाने पर हो, चाहे वह नदियों की सफाई पर हो, नदियों पर तटबंध बनाने के लिये हो। इसने भ्रष्ट मंत्रियों, नौकरशाहों, इंजीनियरों और ठेकेदारों की जेब भरने का काम किया है। देश की ज्यादातर नदी घाटी परियोजनाओं आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हो पायीें। इनकी लागत और आमदनी के बीच हमेशा असंतुलन की स्थिति देखी गयी। अत: सबसे बेहतर नीति यही है कि प्रकृति प्रदत्त जीवनदायिनी चीजों मसलन जल, वायु और प्रकाश की उपलब्धता के साथ हम छेड़छाड़ नहीं करें।
हम प्रकृति की संरचना को नहीं बदल सकते और भगीरथ प्रयास महज मिथक है, यह वास्तविकता नहीं बन सकती। हम इसे सिर्फ बेहतर तरीके से समायोजित भर कर सकते हैं। हमे अपनी खेती की सिचाई और पेयजल जरूरतों की पूर्ति के लिये आसान उपलब्ध व सस्ती तकनीकों के प्रचलन क ो ही बढावा देना चाहिए। अन्यथा पर्यावरण के साथ अरबों रुपये खरच कर इस पर माथापच्ची से इसका कोई स्थायी समाधान नहीं। इसके बदले हमे चाहिए कि हम देश के सभी शुष्क कृषि प्रक्षेत्रों में शुष्क कृषि तकनीको के प्रचलन को व्यापक रूप से बढ़ायें ओर उसके अनुकूल संभावित प्ररिस्थितियां निर्मित करें। दूसरा इन इलाकों में खेती के वैकल्पिक पेशे के रूप में खादी व छोटे उद्योगों की स्थापना को ज्यादा बढ़ावा दें।
हालांकि डेयरी, पशुपालन, मतस्य और वानिकी खेती के सबसे बेहतर सहयोगी पेशे हैं। परंतु इन पेशों के साथ भी यही विडंबना है कि पानी और चारे के अभाव में इनका संचालन भी काफी प्रभावित होता है। ये सभी पेशे एक दूसरे पर निर्भर करने वाले पेशे हैं। मसलन बिना खेती के पशुपालन संभव नहीं और बिना पशुपालन के खेती संभव नहीं। बिना वानिकी के वारिश संभव नहीं और बिना वारिश के वानिकी संभव नहीं। ऐसे में यह बड़ा जरूरी है कि हम ग्रामीण प्रौद्योगिकी के विकास व विस्तार पर व्यापक रूप से कार्य करें। इस पर हम निवेश बढ़ाये जिससे ग्रामीण इलाकों में विनिर्माण, रोजगार और आय सृजन के ज्यादा से ज्यादा अवसर प्राप्त हों।
भारतीय कृषि के समक्ष मौजूदा संकटों के समाधान और किसानों की दयनीय हालत पर काबू पाने के लिये हमे अपने आपदा प्रबंधन और राहत कार्यो की समूची प्रणाली पर भी एक व्यापक निगाह डालना बड़ा जरूरी है। सूखे वगैरह की स्थिति में मनरेगा जैसी योजनाओं का ज्यादा बेहतर सदुपयोग किया जाए। महान अर्थशास्त्री कीन्स ने कहा था कि आर्थिक संकट की स्थिति में सरकारी निवेश के जरिये संपति निर्माण की गतिविधियां बढायी जानी चाहिए। ऐसे में मनरेगा योजना को यदि ग्रामीण आधारभूत संरचना विकास योजना में तब्दील कर दिया जाता तो इसका बेहद बेहतर असर पडेगा। प्रधानमंत्री संड़क योजना, स्वर्णजयंती रोजगार योजना, इंदिरा आवास योजना, राजीव गांधी पेयजल योजना, ग्रामीण विद्युतीकरण योजना, खाद्य सुरक्षा योजना इन सभी को मिलाकर कुल करीब दो लाख करोड़ रुपये की राशि यदि ग्रामीण बुनियादी विकास व कल्याण कार्यों पर खरचे जाएं जिससे गांवों में सड़क, स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक भवन, स्टेडियम, पुस्तकालय, पंपिंग स्टेशन, सोलर पैनल, तालाब, कूंए, बिजली कनेक्षन वगैरह स्थापित किये जाएं तो इससे स्वयंमेव रोजगार सृजन होगा तो दूसरी तरफ गांवों में आधारभूत परिंसंपत्ति का सृजन होगा जिससे वहां विकास को अतिरिक्त गति प्राप्त होगी। तो दूसरी तरफ जो व्यक्ति काम करने की स्थिति में नहीं है मसलन वृद्ध, विकलांग, प्रसूति, छात्र, बच्चे, अनाथ ऐसे जरूरतमंदों को सभी तरह के पेंशन, छात्रवृति, यदि एक योजना के अंतर्गत प्रदान किया जाएगा तो उन सभी की क्रय शक्ति बढ़ेगी। दूभाग्य की बात ये है कि अभी तक देश में मनरेगा योजना के मद का पैसा गांवों में मिट्टी क ोडऩे व भरने और कच्ची सड़क व छोटी नहरों पर खरचा जाता है जो मुश्किल से एक सीजन भी नहीं चल पाता और बाकी पैसा ग्राम प्रधान और श्रमिक के बीच बंदरबांट हो जाता है।
अंत में यह जरूरी है कि इन समस्याओं के मौलिक समाधान के लिये देश की कृषि नीति में मूलभूत परिवर्तन लाया जाए। अभी तक हमारी नीति कृषि लागतों पर सब्सिडी देकर अनाज में आत्मनिर्भरत लाने वाली नीति रही है भले किसानों के लिये यह पेशा महज निर्वाह का क्यों नहीं बना रहे? यह नीति भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देने वाली नीति रही है तथा किसानों की माली हालत क ो कमजोर करने वाली रही हेै। अब समय आ गया है कि हम अपनी कृषि नीति में निम्रलिखित परिवर्तनों को अंजाम प्रदान करें।
* सबसे पहले देश की कृषि मूल्य प्रणाली व इसकी संस्थागत ढांचे में क्रांतिकारी परिवर्तन हो इसके लिये ये ये कदम जरूरी हैं।
* देश के सभी कृषि उत्पाद ों मसलन अनाज व दलहनों, तिलहनों, सब्जियों व फलों, डेयरी उत्पादों व नकदी फसलों व मसालों सभी के लिये उनकी समुचित लागत युक्त न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करना
* देश में उपरोक्त उत्पादों के लिये न्यूनतम व अधिकतम मूल्य नीति की व्यवस्था करना। इसके तहत भारतीय खाद्य निगम व नाफेड जैसी अन्य संस्थाओं को बाजार में हस्तक्षेपवादी संस्था की भूमिका का निर्वाह करना। इसके तहत इनके द्वारा फसल सीजन के अनुसार उपरोक्त सभी उत्पादों की एमएसपी दरों पर क्रय किया जाए। इससे सीजन में इन उत्पादों के मूल्य नीचे नहीं गिरेंगे और उत्पादकों व किसानों को इससे मूल्य व पेशेवर सुरक्षा प्राप्त होगी। दूसरा ये संस्थाएं आफ सीजन में इन सभी क्रय उत्पादों को अपने वेयर हाउस से निकाल कर खुले बाजार में बेचेंगी जिससे इन वस्त्ुाओं की बाजार में इनकी खुदरा कीमते रोकने में मदद मिलेगी। इससे उपभोक्ताओं को सुरक्षा प्राप्त होगी।
* खेती को सभी जोखिमों से मुक्त किया जाए और समूचे देश में फसल बीमा लागू किया जाए। इस बाबत मोदी सरकार ने आगामी रबी सीजन से नयी फसल बीमा लागू करने की घोषणा की है।
* सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मौजूदा योजना कृषि हितों के विरूद्ध है। इसे केवल आपदा व दूरदराज के इलाकों के लिये रखा जाए अन्यथा तैयार भोजन कांउटरों तथा खाद्य भत्ते की योजना शुरू की जाए। इससे सरकार की लाखों करोड़ की सब्सिडी जो भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाती है उसे गांव के गरीबों के प्रत्यक्ष कल्याण पर खरची जाए।
* हमे गांव के सभी मजदूरों की सूची जारी करनी चाहिए। इसमे बाहर प्रवासी मजूदरों के अलावा गांव में मौजूद श्रमिकों के रोजगार, बीमा व प्रशिक्षण का पूरा ब्यौरा हो
आपदा काल में राहत कार्यों में भ्रष्टाचार पर हर तरह के नकेल लगाने की नीति लागू हो।